शिवपुराण से (रूद्र संहिता तृतीय पार्वती खण्ड) (487) गतांक से आगे......

मेना और हिमालय की बातचीत, पार्वती तथा हिमवान् के स्वप्न तथा भगवान् शिव से मंगल ग्रह की उत्पत्ति का प्रसंग
तुम इसे आदरपूर्वक सुनों। दक्ष-यज्ञ से अपने निवास स्थान कैलास पर्वत पर आकर भगवान् शम्भु प्रियाविरह से कातर हो गये और प्राणों से भी अधिक प्यारी सती देवी का हृदय से चिन्तन करने लगे। अपने पार्षदों को बुलाकर सती के लिए शोक करते हुए उनके प्रेमवर्धक गुणों का अत्यन्त प्रीतिपूर्वक वर्णन करने लगे। फिर, गृहस्थ आश्रम की सुन्दर स्थिति तथा नीति-रीति का परित्याग करके वे दिगम्बर हो गये और सब लोकों में उन्मत की भांति भ्रमण करने लगे। लीलाकुशल होने के कारण विरही की अवस्था का प्रदर्शन करने लगे। सती के विरह से दुःखित हो कहीं भी उनका दर्शन न पाकर भक्तकल्याणकारी भगवान् शंकर पुनः कैलास गिरि पर लौट आये और मन को यत्नपूर्वक एकाग्र करके उन्होंने समाधि लगा ली, जो समस्त दुःखों का नाश करने वाली है। समाधि में वे अविनाशी स्वरूप का दर्शन करने लगे। इस तरह तीनों गुणों से रहित हो वे भगवान् शिव चिरकाल तक सुस्थिर भाव से समाधि लगाये बैठे रहे। वे प्रभु स्वयं ही माया के अधिपति निर्विकार परब्रह्म हैं। तदनन्तर जब असंख्य वर्ष व्यतीत हो गये, तब उन्होंने समाधि छोड़ी। उसके बाद तुरंत ही जो चरित्र हुआ, उसे मैं तुम्हें बताता हूं। भगवान् शिव के ललाट से उस समय श्रमजनित पसीने की एक बूंद पृथ्वी पर गिरी और तत्काल एक शिशु के रूप में परिणत हो गयी। मुने! उस बालक के चार भुजाएं थीं, शरीर की कांति लाल थी और आकार मनोहर था।       (शेष आगामी अंक में)

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