मेना और हिमालय की बातचीत, पार्वती तथा हिमवान् के स्वप्न तथा भगवान् शिव से मंगल ग्रह की उत्पत्ति का प्रसंग
गरिराज ने कहा-प्रिये! पिछली रात में मैंने भी एक स्वप्न देखा है। मैं आदरपूर्वक उसे बताता हूं। तुम प्रेमपूर्वक उसे सुनों। एक बड़े उत्तम तपस्वी थे। नारदजी ने वर के जैसे लक्षण बताये थे, उन्हीं लक्षणों से युक्त शरीर को उन्होंने धारण कर रखा था। वे बड़ी प्रसन्नता के साथ मेरे नगर के निकट तपस्या करने के लिए आये। उन्हें देखकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ और मैं अपनी पुत्री को साथ लेकर उनके पास गया। उस समय मुझे ज्ञात हुआ कि नारदजी के बताये हुए वर भगवान् शम्भु ये ही हैं। तब मैंने उन तपस्वी की सेवा के लिए अपनी पुत्री को उपदेश देकर उनसे भी प्रार्थना की कि वे इसकी सेवा स्वीकार करें। परन्तु उस समय उन्होंने मेरी बात नहीं मानी, इतने में वहां सांख्य और वेदांत के अनुसार बहुत बड़ा विवाद छिड़ गया। तदनन्तर उनकी आज्ञा से मेरी बेटी वहीं रह गयी और अपने हृदय में उन्हीं की कामना रखकर भक्तिपूर्वक उनकी सेवा करने लगी। सुमुखि! यही मेरा देखा हुआ स्वप्न है, जिसे मैंने तुम्हें बता दिया। अतः प्रिये मेने! कुछ काल तक इस स्वप्न के फल की परीक्षा या प्रतीक्षा करनी चाहिए, इस समय यही उचित जान पड़ता है। तुम निश्चित समझो, यही मेरा विचार है। ब्रह्माजी कहते हैं-मुनीश्वर नारद! ऐसा कहकर गिरिराज हिमवान् और मेनका शु( हृदय से उस स्वप्न के फल की परीक्षा एवं प्रतीक्षा करने लगे। देवर्षे! शिवभक्तशिरोमणे! भगवान् शंकर का यश परम पावन, मंगलकारी, भक्तिवर्धक और उत्तम है। (शेष आगामी अंक में)