काश! मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता (व्यंग्य)

डॉ. शैलेश शुक्ला, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र। 
काश! मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता—बस एक डिग्री फ्री रजिस्ट्रेशन भरने की बजाय पावर-पैक खाता हाथ में होता। यह पद केवल "शैक्षणिक जिम्मेदारी" नहीं, बल्कि एक लाइफस्टाइल लाइसेंस होता, जो सुबह से शाम तक प्राचार्य स्टाइल में बिताने की अनुमति देता। कॉलेज में क्लासरूम की घंटी छात्रों के लिए होती, पर मेरा ऑफिस घंटा गनगुनाता—*“छात्र क्या समझे, मैं क्या समझूँ” की नीति के साथ। जब फीस जमा होती, तो मैं सिर्फ अकादमिक फंड की गिनती नहीं, बल्कि “आकर्षण-आय का इल्यूज़न” ट्रैक करता। धन की जगह *दोनों हाथ हर शाखा में बांधना प्राथमिकता होती—छात्रों को उसकी जरूरत, फैकल्टी को उसका भरोसा।
परीक्षा-शैक्षणिक संयोजन के बजाए मंडल-डिनर-पार्टनरशिप की समाहारिक व्यवस्था होती। शिक्षक और स्टाफ—क्लासरूम में कम, ‘चाय-आलाप टीम’ के सदस्य ज्यादा दिखते। गणित, विज्ञान, इतिहास नहीं, पर “संबंध प्रबंधन 101” पढ़ाई जाती और पात्रता नहीं, प्रसंग योग्यता पर नियुक्तियाँ होतीं—“आप मेरे अच्छा दोस्त साबित कर लो, कॉलेज आपकी अंगूठी दमकाएगा।”
छात्रवृत्ति? नहीं, ‘छात्र-भेंट’ की साजिश! छात्र तय करते नहीं, रिश्वत-कार्ड निर्धारित करते—छात्रवृत्ति एप्लिकेशन अंगीकार पत्र, बैंक स्टेटमेंट और रिश्वत-लिफाफा साथ होना अनिवार्य। उसे कहते हैं “वित्तीय कल्याण”, पर मुझे लगता है—ये भेंट-प्रियता प्रणाली है। 
जो विभागीय निर्णय होता, वह बजट की बजाय “डिनर-बजट योजना” होता—छात्र एक्स-टूर, फैकल्टी पिकनिक और प्राचार्य के सैलेरीबॉक्स के बीच संबंध बनता। पीयर रिव्यू, शिक्षण मूल्यांकन नीचे, पर सेल्फ-ग्राफ्विक्स की छवि ऊपर! और मैं उसमें सबसे बड़ा Grammy विजेता—डिनर, फ्लैट, बाइक, सब कार्यालयीकृत तरीके से दफ्तर-फंड में समा जाता।
काश मैं कॉलेज का प्राचार्य होता—तो प्रशासन नहीं, राज-नियंत्रण बनाए रखता। क्लासरूम में मास्टर नहीं, मैनेजर होता। छात्रों के परिणाम, फीस की लोडिंग, फैकल्टी के प्रोमोशन—सब एक स्कोर-कार्ड सिस्टम से होते। पूछिए कि ‘कहां पढ़ा है?’ नहीं पूछा जाता, बल्कि पूछा जाता—‘कहां क्या घोड़ा खड़ा करोगे?’ संबोधित व्यक्ति नकल नहीं, सम्बन्ध योग्यता से तौलता जाता। और अगर कोई असहज हो जाए—"सर, नियम विपरीत!” तो समझो उसका परिणाम रहता—"आप अपेक्षित नहीं।”
परीक्षा आयोजित होती, लेकिन न जोड़ने-पिघलाने का कार्यक्रम नहीं, बल्कि “जबर्दस्त व्यक्तिगत रोडमैप” होता। जो छात्र मेहनत करता, वो ‘रिक्विज़िशन फाइल’ में फसता और जो चाकलेट या उपहार भेजता, उसकी स्कोरबोर्ड-विशेष श्रेणी—“pass with distinction” की घोषणा होती।
फंड निकालने की कला होती—“छात्र कल्याण नहीं, प्रियजन कल्याण!” हर खर्च बजट से दिखता, पर वितरणी खाते मेरा होता। लाइब्रेरी में किताबें खरीदें, तो वे बड़े अक्षरों में “Knowledge Initiative” कहलाते, पर वे वहीं तक पहुंचते—प्राचार्य के फार्महाउस की धार्मिक विधि के लिए।
डिपार्टमेंटल मीटिंगें दिखाई जाती, लेकिन हकीकत होती—“चाय-आलाप-चुप्पी” सर्किट। फैकल्टी जो पूछा, वह सवाल नहीं, ‘संकेत’ पूछा जाता—“सर को पसंद आएगा?” और जो छात्र अनुरोध करता—“सर, डिजिटल नोट्स भेजिए”—तो उसे मिलता—“आप डिजिटली कैसे स्पेशल बन सकते हो, यही नोट भेजी जा रही है।” छात्र को परिणाम देने से पहले एक प्रेस नोट भेजी जाती—”हमारी परीक्षा पारदर्शी रही”—लेकिन वाकई होती थी एक “अनौपचारिक परिणाम प्रक्रिया”, जहां संगीत में ऊंचाई और फीस में गहराई पर निर्भरता होती थी। और मैं, यह सोचकर मुस्कुराता—काश मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता!
‘अनुशासन’ नहीं, ‘रिश्वत नीति’ का नियंत्रण : काश मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता—तो मैं अनुशासन-बोर्ड नहीं, एक रिश्वत-कमेटी की स्थापना करता! छात्र देर से आते तो पहले बाल्टी पानी से स्वागत, लेकिन वही यदि ‘वेलकम-बॉक्स’ भेजें तो उन्हें छोड़ने के बजाय विभागीय सम्मान मिलता। टीचर समय पर नहीं आता, तो समझो—Colleague-Transfer का इंतज़ाम फाइल में शुरू हो गया। लेकिन अगर कोई ‘एफ़िशिएंट मर्जिंग— ऐसी रिपोर्ट लेकर आए’ जिसमें उसके रिश्तेदारों का नाम हो, तो प्रमोशन उसकी ब्रीफ़केस का हिस्सा बन जाता। यह वह व्यवस्था है जहाँ ‘अनुशासन’ नहीं, पसंद का स्वाद मायने रखता।
छात्रों की अनुशासन आयोग की बैठकें होतीं, लेकिन असली बैठक होती प्राचार्य के लॉबी-लाउंज-लालटेन में, जहाँ बॉडी लैंग्वेज और गिफ्ट-एक्चेंज को ‘प्रोफेशनल कोड’ की जगह समझा जाता। जो विद्यार्थी पूछते, “सर, मेरे कमीशन-कल्चर की वजह से मेरी फीस रुकी?”, उन्हें बताया जाता—“देखो बेटा, संस्कृति भंग नहीं करनी चाहिए।और यदि कोई शिक्षक ‘शैक्षणिक शिकायत’ ले आता, तो उसकी रिपोर्ट ‘रीव्यू के लिए उच्च शिक्षा बोर्ड में’ भेज दी जाती—लेकिन असल कहानी यह होती कि उसमें एक ही लाइन होती—“संबंधित फाईल निरीक्षण चली गयी है।” और फिर निर्देशक ऑडिट जारी कराने के बाद कहते—“हमने हर प्रणाली चेक कर ली, छात्रो की बोर्ड में कोई कुंठा नहीं है।
‘पड़ोस का पुरस्कार’, ‘दूर-दुश्मन की डिग्री’ : काश मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता—तो मैं जीत जाता “पड़ोस का पुरस्कार”। जीत इसलिए कि जब भी कोई बाहरी एजेंसी या यूनिवर्सिटी निरीक्षण आए, मैं दिखाता “प्रोफेशनल पेंशन कल्चर-प्रैक्टिस”, लेकिन अंदर चलता “फैमिली फंड फंक्शन”. लाइब्रेरी में ‘ई–लर्निंग सिस्टम’ दिखाते समय अंदर होते चाय–डेट की तैयारी, छात्र-फेस नहीं, बल्कि VIP चेहरों की मुस्कुराहट की तस्वीरें दीवारों पर टंगी होतीं। कॉलेज की वर्षगांठ पर “गुरु-गौरव सम्मान” होता, लेकिन यह सम्मान संगीत-अतिरेक और डिनर-प्लानिंग से ज्यादा कुछ नहीं होता और छात्र-फण्ड से लौटी गई राशि, “सुबह-सुशिक्षा-अवसर निधि” कहलाती। और जो शिक्षक ‘एथिकल प्रोसीजर’ लागू करने को कहते, उन्हें भेजा जाता—‘दूसरे कॉलेज में ट्रेनिंग देने’, ताकि वह देर शाम हिसाब-किताब के बजाय ‘क्लास लीडरशिप’ सिखा सकें। यह व्यवस्था छात्रों को “धोखे के अलग-अलग रूप” सिखाती—‘चाहे तुम्हारा पेपर क्लियर हो या न हो, लेकिन क्लास सेशन पर तुम्हारी उपस्थिति दर्ज होगी’।
निजी लाभ, सार्वजनिक प्रतीक : काश मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता—तो मैं पब्लिक प्रतीक नहीं, निजी लाभ का प्रतीक बन जाता। क्योंकि जनता देखने आती है लाइब्रेरी की वॉल-पेंटिंग, लेकिन मुझे पता होता कि पैसा चला रहा है प्राचार्य की निजी गैलरी—फोटो, सम्मान-प्रमाण पत्र और रिवार्डेड कार्ड्स की दीवार। डिपार्टमेंट मीटिंग योजनाएं सिर्फ ‘प्राचार्य का PR–प्लान’ बन जातीं, जिसमें माइक बजने से पहले बजट बजने की तैयारी होती : माइक से पहले होता फंड ट्रांसफर, ताकि बैठक में प्रचार की जोड़ी बने मित्रता का आधार हो। हर तरह के कर्मचारी—फुल टाइम, पार्ट-टाइम, कॉन्ट्रैक्ट—उनमें सिर्फ “एक ही योग्यता” की महत्ता होती—प्राचार्य-संबंधी! और जो कर्मचारी 'नियमउल्लंघन' की बात करे, उसे ट्रांसफर नहीं, ट्रांसफ़र-फ्री ट्रिप का प्रपोज़ल भेजा जाता—कहीं दूर के कॉलेज में “समझाने बैठक की आवश्यकता” होती हुई भेजा जाता।
काश मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता—तो हर ट्रांसपोर्ट सुविधा सार्वजनिक सेवा नहीं, प्रमुख का पर्सनल प्रोपर्टी बन जाती। कॉलेज की बस दिन में चार चक्कर लगाती—‘छात्रों को लेकर कैंपस में’, लेकिन शाम को वह चलती प्राचार्य साहब की गेट टू गेट सुविधा के तहत। कभी पत्नी की खरीदारी, कभी बेटियों की क्लास, कभी साले की मेडिकल हिस्ट्री—सबके लिए बस का इस्तेमाल किया जाता और खर्च कॉलेज के अकाउंट में ‘छात्र सुविधा’ के नाम से दर्ज होता।
आईटी लैब या लाइब्रेरी के कंप्यूटर अपडेट होने चाहिए—तो मैं पहले उन्हें “प्रेरक निरीक्षण उपकरण” कहता, फिर रातों-रात डिवार्टमैंट-फंड से अपडेट करा देता। अगर कोई शिकायत करे—“सर, हमें एक्सेस नहीं मिल रही”—तो जवाब मिलता, “देखो बेटा, उन मशीनों का प्रबंधन मीडिया वर्कशॉप के लिए करना है”—वो टर्मिनल वही रहे, लेकिन कॉन्ट्रोल पूरी तरह मेरे हाथ में रहे।
प्राचार्य के अधिकार में पेपर, परीक्षाएँ, असाइनमेंट नहीं – पेमेंट, पिकअप और पोटेंशियल वाली सभी चीजें होती हैं। हर वार्षिक आयोजन एक जबरदस्त मार्केटिंग ऑपरेशन बन कर निकलता—सोशल मीडिया, हजारों टिकट, स्टूडेंट-ग्रुप फोटो, फैमिली-सवाल-कूपन—सब पर कॉलेज का नाम चमकता है, जबकि असल में PR के नाम पर College Board Funding का ट्रांसफर मूल उद्देश्य होता। और जब शाम ढलती है, तो प्राचार्य का कार्यालय बंद नहीं होता; सूत्र योजनाएं चालू रहती हैं—अगले दिन के inspection की तैयारी, नीक-नियम-वैधानिक रिपोर्ट और साथ ही हर दिन ‘सेल्फ–रिवॉर्ड’ की लिस्ट अपडेट!
काश मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता—तो मेरे लिए ‘भविष्यदृष्टि’ सब तालियों की गूंज होती, पर असल मैं देखता “आज की तलवार”—अपने हित की। कैम्पस के वो छात्र जो पढ़ाई छोड़ धूप-छाँव में मटर–पनीर तलाशते रहते हैं—उनकी उपस्थिति मुझे सिर्फ प्राचार्य-रिपोर्टिंग की संख्या बताती। और जब कभी कोई NGO या यूनिवर्सिटी सर्टिफिकेशन टीम आती, तो मैं पहले ही ‘फर्जी प्रेजेंटेशन’ तैयार करता—पावरप्वाइंट में चार्ट, एक्शन प्लान, डिजिटल स्ट्रैटेजी, लेकिन वास्‍तविकता में शून्य कार्यान्वयन।फैकल्टी ड्यूटी सिर्फ प्रोग्राम का हिस्सा होती, ना कि अकादमिक योगदान—कोई बोलता ‘गृहकार्य सैंपल’, तो उसकी बात टाला जाता; लेकिन अगर वह “प्राचार्य के हालात अनुकूल करें” परियोजना लेकर आए, तो वह उसी शाम मेन्यू की पहली पसंद बन जाता। और जो फैकल्टी ऑफिस टाइम में “सैलरी स्लिप” के सवाल कर बैठे, उन्हें मिलते ‘ऑफ-टेक्स्ट-बुक इतिश्रीफ’ प्रोजेक्ट्स—जिनमें वे कभी छात्र मीटिंग्स, कभी सामान खरीदाई प्रबंधन में लगे रहते।
कॉलेज की सुरक्षा नीति एक हद तक सतही होती, पर मैं उसमें पर्सनल पॉलिसी कवर घुसा देता—चौबीसों घंटे कर्मचारी लॉबी में होते हैं, जिनमें से कई “प्राचार्य-एलायड थ्रेट मसाज़ टीम” का हिस्सा होते। जब कोई शिकायत करता—‘सर, मेरे लैपटॉप से कुछ फाइलें गायब हैं’, तो जवाब मिलता—“प्राथमिक जांच चल रही है”—और वह फ़ाइल फिर “फ़ैकिलिटी सबूत” के रूप में इंकार के रूप में वापस लौट आती।इस व्यवस्था में कॉलेज संस्कृति तो चमकती है, पर असल संस्कृति होती “PR और पॉवर-प्ले”. परिणाम? हर छात्र कहता—"मैंने क्या पढ़ा, लेकिन मैंने क्या जमा किया—वही GPA कहलाता है" और मैं मुस्कुराकर सोचता—काश मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता!
काश मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता—तो मैं शैक्षणिक समर्पण की जगह सम्बंध-संचालन को प्राथमिकता देता। हर विभाग के हेड से पूछना नहीं होता, बल्कि ‘हमारी सुविधा सुनिश्चित करो’—इस सूची को चार्ट में रखा जाता। फैकल्टी मीटिंगें होती, लेकिन सलाह नहीं, संबल-बदलाव योजना तय होती। छात्रों से बात हो या ना हो, लेकिन सोशल मीडिया एक्टिविटी ज़रूर दिखनी चाहिए—ताकि कॉलेज की फेवरिट पोस्ट, कॉलेज का ‘ज्ञान-प्रचार’ बन जाए। इस प्रचार-प्रचार की आड़ में हर खर्च PR-फंडिंग कहलाता और समीक्षा होती “लाइक-टु-लाभ इंफ्लूएंसर रिपोर्ट”.
साफ-साफ कहूं, अगर मैं प्राचार्य होता, तो मैं सिर्फ एग्जाम रिजल्ट में नहीं, इंस्टाग्राम एनगेजमेंट में नापता था शिक्षण स्तर। और फेसबुक पर ‘Happy Guru Purnima’ पोस्ट नहीं, बल्कि ‘हैशटैग गर्व’ पोस्ट करवाता—‘#GovtCollegeStar’, ‘#प्राचार्यडॉसा’, ‘#CollegeManagementKing’.
यह हर दिन की प्रेरणा-पावती नहीं, पॉपुलैरिटी-स्टैटिस्टिक्स होती। जिसमें अगर किसी दिन कम ट्रेंड आया, तो तुरंत ‘स्पेशल विजिट’ टीम भेजी जाती—कॉलेज का गेट ताले से सामने दिखता, कैमरे में ‘स्पॉन्सर्ड बाय College Council’ लिखा होता और फिर ट्रेनिंग ऑफ द ट्रेंड्स की वर्कशॉप हो जाती। और जबकि शैक्षिक मूल्यों की जगह ‘पोस्ट पसंद’ मायने रखती, मैं जानकार मुस्कुराता—काश मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता!
काश मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता—तो मैं स्मार्ट क्लास नहीं, स्मार्ट कमिटमेंट पर जोर देता। क्लासरूम में एलसीडी दिखते हैं और बाहर प्राचार्य कार्यालय में एलईडी पर पावर-पॉइंट गारंटी चलती रहती है। छात्र आएं या ना आएं, लेकिन Wi-Fi कनेक्शन होना ज़रूरी—ताकि वह ‘ई-जगजगीरी’ कनेक्टिविटी रिपोर्ट भेजने के लिए तैयार रहे। अंग्रेज़ी अभिव्यक्ति में नार्गरी, कहा जाए *‘इमेज बिल्डिंग’, ‘ब्रांड कम्पैटीबिलिटी’ और ‘ट्रेंड-टु-बजट’ पर फंड मंजूरी हो जाती। लाइब्रेरी में ज़रूरी नहीं की छात्र बोलें, पर इमेज लाइटिंग रखना ज़रूरी होता—ताकि बाहरी निरीक्षकों को लगे कि कॉलेज डिजिटल डिस्कवरी जंक्शन है और परीक्षा परिणाम जो आते हैं, वे नोटिस बोर्ड पर नहीं, बल्कि प्रतिनिधि प्रोफाइल में ट्वीट-रिव्यू होकर आते। हर रिजल्ट प्रेस नोट में लिखा—“हमारा संस्थान शिक्षा के साथ-साथ ‘डेटा-आधारित निर्णय’ लेता है।” और असल में, हम डाटा फ्रेमिंग में इतने माहिर होते हैं कि छात्रों की अंकसूची से ज़्यादा ‘ट्विटर लाइक’ और ‘रिट्वीट’ की संख्या मायने रखती। इस व्यवस्था में शिक्षा को इंफ्लुएंसर-डिज़ाइन लर्निंग कहा जाता और फंडिंग को फॉलोअर-बेस्ड कैप्शन माना जाता। मुझे पूरा विश्वास होता—जब तक कॉलेज का रिटर्न ऑन इंटरेक्शन बढ़ रहा है, तब तक कॉलेज ‘उन्नत’ है। और मैं कुर्सी पर बैठ कर सोचता—काश मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता!
लेखक, पत्रकार, साहित्यकार एवं वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह
आशियाना (लखनऊ) उत्तर प्रदेश

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