शिवपुराण से....... (411) गतांक से आगे.......रूद्र संहिता, द्वितीय (सती) खण्ड

दक्ष की यज्ञ की रक्षा के लिए भगवान् विष्णु से प्रार्थना, भगवान् का शिवद्रोहजनित संकट को टालने में अपनी असमर्थता बताते हुए दक्ष को समझाना तथा सेना सहित वीरभद्र का आगमन  

महेश्वर का अपमान करने से ही तुम्हारे ऊपर महान् भय उपस्थित हुआ है। हम सब लोग प्रभु होते हुए भी आज तुम्हारी दुर्नीति के कारण तो संकट आया है, उस टालने में समर्थ नहीं हैं। यह मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूं।

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! भगवान् विष्णु का यह वचन सुनकर दक्ष चिन्ता में डूब गये। उनके चेहरे का रंग उड़ गया और वे चुपचाप पृथ्वी पर खड़े रह गये। इसी समय भगवान् रूद्र के भेजे हुए गणनायक वीरभद्र अपनी सेना के साथ यज्ञस्थल में जा पहुंचे। वे सब-के-सब बड़े शूरवीर, निर्भय तथा रूद्र के समान ही पराक्रमी थे। भगवान् शंकर की आज्ञा से आये हुए उन गणों की गणना असम्भव थी। वे वीर शिरोमणि रूद्र सैनिक जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे। उनके उस महानाद से तीनों लोक गूंज उठे। आकाश धूल से ढक गया और दिशाएं अन्धकार से आवृत हो गयीं। सातों द्वीपों से युक्त पृथ्वी अत्यन्त भय से व्याकुल हो पर्वत, वन और काननों सहित कांपने लगी तथा सम्पूर्ण समुद्रों में ज्वार आ गया। इस प्रकार समस्त लोकों का विनाश करने में समर्थ उस विशाल सेना को देखकर समस्त देवता आदि चकित हो गये। सेना के उद्योग को देख दक्ष के मुंह से खून निकल आया। वे अपनी स्त्री को साथ ले भगवान् विष्णु के चरणों में दण्ड़ की भांति गिर पड़े और इस प्रकार बोले।                               

(शेष आगामी अंक में)

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