शिवपुराण से....... (405) गतांक से आगे.......रूद्र संहिता, द्वितीय (सती) खण्ड

गणों के मुख से और नारद से भी सती के दग्ध होने की बात सुनकर दक्ष पर कुपित हुए शिव का अपनी जटा से वीरभद्र और महाकाली को प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करने और विरोधियों को जला डालने की आज्ञा देना         

गतांक से आगे........ शम्भो! आप शुभ के आधार हैं। जिसकी आपमें सुदृढ़ भक्ति है, उसी को सदा विजय प्राप्त होती है और उसी का दिनोदिन शुभ होता है।
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! उसकी यह बात सुनकर सर्वमंगला के पति भगवान् शिव बहुत संतुष्ट हुए और वीरभद्र! तुम्हारी जय हो, ऐसा आर्शीवाद देकर वे फिर बोले।
महेश्वर ने कहा- मेरे पार्षदों मंे श्रेष्ठ वीरभद्र! ब्रह्मजी का पुत्र दक्ष बड़ा दुष्ट है। उस मुर्ख को बड़ा घमंड हो गया है। अतः इन दिनों वह विशेष रूप से मेरा विरोध करने लगा है। दक्ष इस समय एक यज्ञ करने के लिए उद्यत है। तुम याग-परिवार सहित उस यज्ञ को भस्म करके फिर शीघ्र मेरे स्थान पर लौट आओ। यदि देवता, गन्धर्व, यक्ष अथवा अन्य कोई तुम्हारा सामना करने के लिए उद्यत हो तो उन्हें भी आज ही शीघ्र और सहसा भस्म कर डालना। दधीच की दिलायी हुई मेरी शपथ का उल्लंघन करके जो देवता आदि वहां ठहरे हुए हैं, उन्हें तुम निश्चय ही प्रयत्नपूर्वक जलाकर भस्म कर देना। जो मेरी शपथ का उल्लंघन करके गर्वयुक्त हो वहां ठहरे हुए हैं, वे सब के सब मेरे द्रोही हैं। अतः उन्हें अग्निमयी माया से जला डालो। दक्ष यज्ञशाला में जो अपनी पत्नियों और सारभूत उपकरणों के साथ बैठे हों,                       
                                                                                 (शेष आगामी अंक में)
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