शिवपुराण से....... (404) गतांक से आगे.......रूद्र संहिता, द्वितीय (सती) खण्ड

गणों के मुख से और नारद से भी सती के दग्ध होने की बात सुनकर दक्ष पर कुपित हुए शिव का अपनी जटा से वीरभद्र और महाकाली को प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करने और विरोधियों को जला डालने की आज्ञा देना         

गतांक से आगे........ ईशान! क्या मुझे आधे ही क्षण में सारे समुद्रों को सुखा देना है? या इतने ही समय में  सम्पूर्ण पर्वतों को पीस डालना है? हर! मैं एक ही क्षण में ब्रह्माण्ड़ को भस्म कर डालूं या समस्त देवताओं और मुनीश्वरों को जलाकर राख कर दूं? शंकर! ईशान! क्या मैं समस्त लोकों को उलट-पलट दूं या सम्पूर्ण प्राणियों का विनाश कर डालूं? महेश्वर! आपकी कृपा से कहीं कोई भी ऐसा कार्य नहीं है, जिसे मैं न कर सकूं। पराक्रम के द्वारा मेरी समानता करने वाला वीर न पहले कभी हुआ है और न आगे होगा। शंकर! आप किसी तिनके को भेज दें तो वह भी बिना किसी यत्न के क्षण भर में बड़े से बड़ा कार्य सिद्ध कर सकता है, इसमें संशय नहीं है। शम्भो! यद्यपि आपकी लीला मात्र से सारा कार्य सिद्ध हो जाता है, तथापि जो मुझे भेजा जा रहा है, यह मुझपर आपका अनुग्रह ही है। शम्भो! मुझमें भी जो ऐसी शक्ति है, वह आपकी कृपा से ही प्राप्त हुई है। शंकर! आपकी कृपा के बिना किसी में भी कोई शक्ति नहीं हो सकती। वास्तव में आपकी आज्ञा के बिना कोई तिनके आदि को भी हिलाने में समर्थ नहीं है, यह निस्संदेह कहा जा सकता है। महादेव! मैं आपके चरणों में बारंबार प्रणाम करता हूं। हर! आप अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए आज मुझे शीघ्र भेजिये।                                                                                                                                 (शेष आगामी अंक में)

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