शिवपुराण से....... (355) गतांक से आगे.......रूद्र संहिता (प्रथम सृष्टिखण्ड़)

सती का प्रश्न तथा उसके उत्तर में भगवान् शिव द्वारा ज्ञान एवं नवध भक्ति के स्वरूप का विवेचन........

गतांक से आगे............  पूर्वोक्त सगुणा और निर्गुणा-ये दोनों प्रकार की भक्तियां नैष्ठिकी और अनैष्ठिकी के भेद से दो भेदवाली हो जाती हैं। नैष्ठिकी भक्ति छः प्रकार की जाननी चाहिए और अनैष्ठिकी एक ही प्रकार की कही गयी है। विद्वान् पुरूष विहिता और अविहिता आदि भेद से उसे अनेक प्रकार की मानते हैं। इन द्विविध भक्तियों के बहुत से भेद-प्रभेद होने के कारण इनके तत्व का अन्यत्र वर्णन किया गया है। प्रिये! मुनियो ने सगुणा और निर्गुणा दोनो भक्तियों के नौं अंग बताये है। दक्षनन्दिनी! मैं उन नवों अंगों का वर्णन करता हूं, तुम प्रेम से सुनो। देवि! श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्य, अर्चन, सदा मेरा वंदन, सख्य और आत्मसमर्पण-ये विद्वानों ने भक्ति के नौ अंग माने हैं।

श्रवणं कीर्तनं चैव स्मरणं सेवनं तथा, दास्यं तथार्चनं देवि वंदनं मम सर्वदा।

सख्यमात्मार्पणं चेति नवांगानि विदुर्बुधाः। (शि.पु.रू.स.खं.23/22)

शिवे! भक्ति के उपांग भी बहुत से बताये गये हैं। देवि! अब तुम मन लगाकर मेरी भक्ति के पूर्वोक्त नवों अंगों के पृथक-पृथक लक्षण सुनों, वे लक्षण भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। जो स्थिर आसन से बैठकर तन-मन आदि से मेरी कथा-कीर्तन आदि का नित्य सम्मान करता हुआ प्रसन्नतापूर्वक अपने श्रवण पुटों से उसके अमृतोपम रस का पान करता है, उसके इस साधन को श्रपण कहते हैं। जो हृदयाकाश के द्वारा मेरे दिव्य जन्म-कर्मों का चिंतन करता हुआ 

(शेष आगामी अंक में)

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