डा हिमेंद्र बाली, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
राष्ट्रीय खादी दिवस पर खादी ग्रामोद्योग की दयनीय स्थिति का स्मरण हो उठता है। खेद का विषय है कि कभी खादी स्वराज और मुक्ति संघर्ष का सशक्त हथियार था। 1920 में गांधी जी ने असहयोग आंदोलन के प्रचण्ड आंदोलन को जन आंदोलन बनाने के लिए खादी को अपनाने का भारतवासियों से आह्वान किया था, उनके इस आह्वान से चरखा राष्ट्रीय सूचक बन कर उभर आया था। चरखे पर सूत कातकर स्वयं खादी कपड़ा हथकरघे पर तैयार कर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का संकल्प ही राष्ट्रीय आंदोलन को व्याप्त स्वरूप तैयार करने में सफल रहा।
आज जिन ग्रामीण आंचल में खादी वस्त्रों का उत्पादन हुआ करता था, वह वहां अब खादी बनाने के हथकरघे किताबों के किस्से बन कर रह गए हैं। सुकेत की प्राचीन राजधानी व धरोहर गांव पांगणा में कभी नगराओं गांव में पूरा गांव खादी के वस्त्रों के बुनने के लिए विख्यात था। चूंकि पांगणा सत्याग्रह का केन्द्रीय स्थान था, अत:स्वदेशी व स्वराज्य के जयघोष की दुन्दुभि भी यहां बज उठी थी। रियासती काल में लोग यहां खड्डी में बुने कपड़ों का ही प्रयोग क्या करते हैं। वास्तव में खादी स्वातंत्रय संग्राम में राष्ट्रीय स्वाभिमान का साधन थी और मुक्ति का साध्य भी। खादी करोड़ों भारतीयों की आजीविका का सम्भल थी। आज राष्ट्र में स्वदेशी वस्तुओं के प्रचलन से राष्ट्रीय गौरव और राष्ट्रीय स्वावलम्बन की राह प्रशस्त होगा।
आज पांगणा व पूरे सुकेत क्षेत्र में दो तीन खड्डियां ही रह गई है, जिन पर खादी का वस्त्र बुना जाता है। खादी के वस्त्र को पहनने में आत्मीयता की अनुभूति और सादगी का संतोष निहित है। आज इस दिवस के अवसर पर खादी को पुन: प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है। खादी से जहां राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रवर्तन होगा, वहीं दुःसाध्य जीवन की राह श्रमसिंचित उद्योग से सुगम होगी।
प्रधानाचार्य साहित्यकार कुमारसैन शिमला
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