राज शर्मा, कुल्लू। हिमाचल प्रदेश की ऐतिहासिक नगरी व सुकेत रियासत के सेन वँशीय 52 शासकों की कर्म स्थली पाँगणा मे वर्ष भर मनाए जाने वाले त्योहारों मे सद्भाव शाँति, सहकारिता और प्राचीन परँपरा के दर्शन होते हैँ।इन्हीं त्योहारों मे आज चिड़ियो के नाम से मनाए जाने वाले "चिड़त्री "पर्व की देश राज गुप्ता जी के घर मे विशेष रौनक है। व्रत धारण करने वाली महिलाएँ और कँवारी लड़कियाँ ने देशराज जी के घर मे मिट्टी से बनाई चिड़ियो और शिव-पार्वती की मूर्तियो की ऋतु फलो, बिल्व पत्र, धतुरे व अन्य पुष्पो से पूजा करने के बाद घर लौटकर फलाहार (भरेसे की दड़ीटी,साबूदाने का मीठा,दही के साथ बनाए खट्टेआलू,गरी-छुआरे व सूखे मेवो को दूध मे पकाकर बनाए गए "खवाणी") आदि हल्का खाना खाकर दिन भर के प्रदोष उपवास का रात्रि मे पारण किया।निराहार रहकर और रात्रि जागरण से भी व्रत धारण करने वाली महिलाएँ व कन्याएँ फल और दूध ग्रहण कर व्रत पूर्ण करती हैं।
संस्कृति मर्मज्ञ डॉक्टर जगदीश शर्मा का कहना है कि चिड़त्री की तैयारी एक सप्ताह पूर्व शुरू हो जाती है। शुभ मुहूर्त मे चिकनी मिट्टी लाकर इसमें रूई मिलाकर पानी से गूँथकर चिड़ियाँ (मोर ,बतख आदि) तथा वन्य जीव -जँतु और शिव-पार्वती के श्री विग्रह बनाकर सूखने के बाद विभिन्न रँगो से सज्जित किए जाते है।एक सप्ताह पूर्व ही एक गमले मे पूजा के लिए "सतनाजा"(हरियाली) बीजकर इसकी नवीन कोपलो को चिड़त्री की पूजा के बाद "शेष"के रूप मे भेँट किया जाता है।कल प्रातःमिट्टी से निर्मित चिड़ियो को कन्याओ मे वितरित कर चिड़त्री का त्योहार सँपन्न हो जाएगा ।महिलाएँ इस व्रत को जहाँ अखण्ड सौभाग्य के लिए करती हैँ वहीँ कँवारी लड़कियाँ अपने मन के अनुरूप वर प्राप्ती के लिए चिड़त्री का व्रत करती हैँ।
सुकेत संस्कृति साहित्य एवं जन कल्याण मंच पांगणा के अध्यक्ष डॉक्टर हिमेन्द्र बाली "हिम" का कहना है पार्वती ने शिव को पतिरूप मे प्राप्त करने के लिए इस व्रत को किया था।अनेक स्थानों पर सुहाग चाहने वाली स्त्रियाँ शिव-शंकर की मूर्तियां बनाकर पूजन करती हैं तथा व्रत करने वाली स्त्रियाँ माता पार्वती के समान सुखपूर्वक जीवन यापन कर अंत समय में शिवालिक प्रस्थान करती हैं। व्यापार मंडल पांगणा के अध्यक्ष सुमित गुप्ता और युवा प्रेरक पुनीत गुप्ता का कहना है कि चिड़त्री का पर्व प्रकृति के विविध जीव-जंतुओं,पेड़-पौधों,फूल-फल जैसे विविध रंगों तथा हमारी समृद्ध संस्कृति का श्रृंगार है।इसके मौलिक स्वरूप को उसी रूप में श्रृंगारित कर संरक्षित करने का देशराज जी के परिजनों का प्रयास बहुत ही स्तुत्य है।
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