हज़रत अली! आज ही के दिन बन गए थे सबके मौला 






अमजद रजा, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।


ग़दीर! वो जगह जो मक्के और मदीने के बीच है। सऊदी अरब में मक्का शहर से तक़रीबन 200 किलोमीटर की दूरी पर जोहफ़े के पास है। ये एक चौराहा है। नॉर्थ की तरफ मदीने को रास्ता जाता है। साउथ की तरफ़ यमन को, ईस्ट की तरफ़ इराक को और वेस्ट की तरफ़ मिस्र को रास्ता जाता है। ये जगह इस्लाम के इतिहास में एक अहम घटना की ग़वाह है। इस्लामिक कैलंडर के मुताबिक़ 18 ज़िलहिज्जा सन् 10 हिजरी को हज़रत अली को रसूले अकरम मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) ने हज़रत अबु तालिब के साहिबज़ादे को अपना उत्तराधिकारी चुना था। मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की बेटी फातिमा के शौहर थे, जिनको शिया मुसलमानों ने पहला इमाम माना। सुन्नी मुसलमानों ने चौथा ख़लीफा माना। अली जिनके दो बेटे हुए और अली के बाद दोनों इमाम हुए। इस बात की दुश्मनी में बड़े बेटे को ज़हर देकर शहीद किया, दूसरे बेटे इमाम हुसैन को कर्बला बुलाकर कुंद धार के खंजर से शहीद किया और खुद अली को उनके दुश्मन ने मस्जिद के अंदर ज़हर में बुझी हुई तलवार से शहीद किया।
ग़दीर ए खुम

सन् 10 हिजरी का आख़िरी महीना ज़िलहिज्जा यानी बकरीद वाला महीने में पैगंबरे इस्लाम मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) ने अपनी ज़िंदगी का आख़िरी हज किया और मक्का से मदीने जाने के लिए अपने क़ाफ़िले को चलने का हुक़्म दिया। किताबों में मिलता है कि जब यह क़ाफ़िला ग़दीर ए खुम नामी जगह पर पहुंचा तो हज़रत मुहम्मद (स.अ.) के पास अल्लाह के फरिश्ते जिब्राइल-ए-अमीन पैग़ाम लेकर आए कहा-"ऐ रसूल उस पैग़ाम को पहुंचा दीजिए जो आपके परवरदिगार की ओर से आप पर नाज़िल हो चुका है और अगर आप ने ऐसा न किया तो ऐसा है जैसे आपने रिसालत का कोई काम अंजाम नही दिया। अल्लाह, लोगों के शर से आप की हिफ़ाज़त करेगा।" (सूरए मायदा आयत नंबर 67 का अनुवाद)
इस आयत से साफ़ है कि मुहम्मद साहब को कोई बेहद ज़रूरी काम सौंपा गया था। उन्होंने क़ाफ़िले से रुकने को कहा। गर्मी अपने शबाब पर थी। ऊंटों पर बैठने के लिए जो कजावा होते हैं, उनसे मिंबर (एक तरह की कुर्सी कहिए या तख़्त) बनाया गया। रसूल मुहम्मद साहब उसपर चढ़े और ऊंची आवाज़ में एक ख़ुत्बा (स्पीच) दिया-"ऐ लोगो! वह वक़्त करीब है कि जब मैं अल्लाह के बुलावे को क़बूल कर तुम्हारे बीच से चला जाऊं। उसके दरबार में तुम भी जवाबदेह और मैं भी। क्या मैंने तुम्हारी ज़िम्मेदारियों को पूरा कर दिया है?" जब लोगों ने हां में जवाब दिया तो उन्होंने फिर पूछा-“क्या तुम गवाही देते हो कि इस पूरी दुनिया का माबूद एक है और मुहम्मद उसका बंदा और रसूल है। जन्नत, जहन्नम और जन्नत की ज़िंदगी में कोई शक नही है?" अल्लाह का रसूल सवाल करता रहा और लोग जवाब देते रहे। उनकी हर बात पर यकीन जताते रहे। हर बात में हामी भरते रहे। जब तमाम बातों का तक़रीबन एक लाख के मजमे ने इक़रार कर लिया, तब रसूल ने हज़रत अली का सबसे तार्रुफ़ कराया और कहा-"मनकुन्तु मौलाहु फ़हाज़ा अलीयुन मौलाहु"। रसूल का ये ख़ुत्बा तमाम किताबों में मिलता है, जिसको बहुत लोग झुठलाने की कोशिश करते हैं। ख़ुद को मुसलमान कहने वाले बहुत से लोग मौला अली को मौला मानने से इनकार करते हैं।
रसूल ने इस ख़ुत्बे में कहा था-"जिस जिस का मैं मौला हूं उस उस के यह अली मौला हैं। ऐ अल्लाह उसको दोस्त रख जो अली को दोस्त रखे और उसको दुश्मन रख जो अली को दुश्मन रखे, उस से मुहब्बत कर जो अली से मुहब्बत करे और उस पर ग़ज़बनाक (परकोपित) हो जो अली पर ग़ज़बनाक हो, उसकी मदद कर जो अली की मदद करे और उसको रुसवा कर जो अली को रुसवा करे और हक़ को उधर मोड़ दे जिधर अली मुड़ें।" तो रसूल की दुआ है खाली नहीं जाती है। हक़ पर चलना चाहते हो तो अली की तरफ़ लौट आओ, क्योंकि हक़ उस तरफ़ है, जिस तरफ़ अली हैं।
मरहूम अल्लामा अमीनी ने ग़दीर-ए-खुम की इस एतिहासिक घटना के बारे में अपनी किताब अलग़दीर में शिया उलेमा और सुन्नी उलेमा के हवाले बयान किए हैं। रिसर्च करो तो कई विद्वानों के नाम सामने आते हैं, जिन्होंने इस बारे में गदीर ए खुम के इस ऐलान के बारे में ज़िक्र किया है। इन नामों में इब्ने हंबल शेबानी, इब्ने हज्रे अस्क़लानी, जज़री शाफ़ेई, अबु सईदे जिस्तानी, अमीर मुहम्मद यमनी, निसाई, अबुल आला हमदानी, अबुल इरफ़ान हब्बान।
आज का दिन खास दिन का माना गया। शिया मुस्लिम में तो बाक़ायदा आज के दिन महफ़िले होती हैं, मुबारक़बाद दी जाती है, जश्न मनाया जाता है, पकवान भी बनते हैं, क्योंकि अली उस शख़्सियत का नाम है, जो उस घर में पैदा हुए, जिसकी तरफ़ मुंह करके दुनियाभर का मुसलमान नमाज़ पढ़ता है। यानी क़ाबा। आज भी हज़रत अली का शानदार और ख़ूबसूरत रोज़ा (शिरीन) इराक़ के नजफ़ इलाके में है, जहां दुनियाभर का मुसलमान ज़ियारत के लिए जाता है।


बेहडा, ककरौली (मुजफ्फरनगर) उत्तर प्रदेश।





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