शिवपुराण से....... (249) गतांक से आगे.......रूद्र संहिता (प्रथम सृष्टिखण्ड़)


शिवपूजन की सर्वोत्तम विधि का वर्णन .........


गतांक से आगे............
 शुद्ध वस्त्र से इष्टदेव के स्मरणपूर्वक स्नान करें। जिस वस्त्र को दूसरे ने धारण किया हो अथवा जो दूसरों के पहनने की वस्तु हो तथा जिसे स्वयं रात में धारण किया गया हो, वह वस्त्र उच्छिष्ट कहलाता है। उससे तभी स्नान किया जा सकता है, जब उसे धो लिया गया हो। स्नान के पश्चात देवताओं, ऋषियों तथा पितरों को तृप्ति देने वाला स्नानांग तर्पण करना चाहिए। उसके बाद धुला हुआ वस्त्र पहने और आचमन करें। द्विजोत्तमों! तदन्तर गोबर आदि से लीप-पोतकर स्वच्छ किये हुए शुद्ध स्नान में जाकर वहां सुन्दर आसन की व्यवस्था करें। वह आसन विशुद्ध काष्ट का बना हुआ, पूरा फैला हुआ तथा विचित्र होना चाहिए। ऐसा आसन सम्पूर्ण अभीष्ट तथा फलों को देने वाला है। उसके ऊपर बिछाने के लिए यथायोग्य मृगचर्म आदि ग्रहण करें। शुद्ध बुद्धि वाला पुरूष उस आसन पर बैठकर भस्म से त्रिपुण्ड्र लगाये। त्रिपुण्ड्र से जप-तप तथा दान सफल होता है। भस्म के अभाव में त्रिपुण्ड्र का साधन जल आदि बताया गया है। इस तरह त्रिपुण्ड्र करके मनुष्य रूद्राक्ष धारण करे और अपने नित्यकर्म का सम्पादन करके फिर शिव की आराधना करे। तत्पश्चात् तीन बार मंत्रोच्चारण पूर्वक आचमन करे। फिर वहां शिव की पूजा के लिए अन्न और जल लाकर रखे। दूसरी कोई भी जो वस्तु आवश्यक हो, उसे यथा शक्ति जुटाकर अपने पास रखे। इस प्रकार पूजन सामग्री का संग्रह करके वहां धैर्यपूर्वक स्थित भाव से बैठें। फिर जल, गन्ध और अक्षत से युक्त एक अध्र्यपात्र लेकर उसे दाहिने भाग में रखें। उससे उपचार की सिद्धि होती है।                                                        (शेष आगामी अंक में)


Post a Comment

Previous Post Next Post