श्रीहरि को सृष्टि की रक्षा का भार एवं भोग-मोक्ष दान का अधिकार दे भगवान् शिव का अन्तर्ध्यान होना.....
गतांक से आगे............
जो तुम्हारी शरण में आ गया, वह निश्चय ही मेरी शरण में आ गया। जो मुझमें और तुममें अन्तर समझता है, वह अवश्य ही नरक में गिरता है।
त्वां यःसमाश्रितो नूनं मामेव स समाश्रितः।
अन्तरं यश्च जानाति निरये पतति ध्रुवम्।। ;शि.पु.रू.सृ.सं. 10/14द्ध
ब्रह्माजी कहते हैं-देवर्षे! भगवान् शिव का यह वचन सुनकर मेरे साथ भगवान् विष्णु ने सबको वश में करने वाले विश्वनाथ को प्रणाम करके मन्द स्वर में कहा- श्रीविष्णु बोले- करूणा सिन्धो! जगन्नाथ शंकर! मेरी यह बात सुनिये। मैं आपकी आज्ञा के अधीन रहकर यह सबकुछ करूंगा। स्वामिन्! जो मेरा भक्त होकर आपकी निन्दा करे, उसे आप निश्चय ही नरकवास प्रदान करें। नाथ! जो आपका भक्त है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। जो ऐसा जानता है, उसके लिए मोक्ष दुर्लभ नहीं है।
मम भक्तश्च यः स्वामिस्तव निन्दां करिष्यति।
तस्य वै निरये वासं प्रयच्छ नियतं ध्रवुम्।।
त्वद्भक्तो यो भवेत्स्वामिन्मम प्रियतरो हि सः।
एवं वै यो विजानाति तस्य मुक्तिर्न दुर्लभा।। ;शि.पु.रू.सृ.सं. 10/30-31द्ध
श्रीहरि का यह कथन सुनकर दुःखहारी हर ने उनकी बात का अनुमोदन किया और नाना प्रकार के धर्मों का उपदेश देकर हम दोनों के हित की इच्छा से (शेष आगामी अंक में)