डॉक्टर जगदीश शर्मा, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
भारत देश का मंगल उत्सव होली सुकेत के ऐतिहासिक नगरी पांगणा में धूमधाम से संपन्न हो गया। यहां होली का उत्सव 2 दिन मनाया जाता है। पहले दिन मिट्टी से बनी "भयाइयों",लकड़ी की तलवार, दारूहरिद्रा की एक-एक फुट की पांच टहनियों को "मकोल"(स्थानीय चूने की किस्म) और अनेक रंगों से रंगा जाता है। "फू करो फागा रे फगैरुओ" के उदघोष के साथ होलिका दहन के लिए चीड़/चील वृक्ष और पाजे की टहनियां लाते हैं। रात को गूंथकर रखे गंदम के आटे के प्रातः बाबरु और मास की दाल के भल्ले, साजरी बड़ी आदि पारंपरिक व्यंजन बड़े चाव से बनाए जाते हैं। स्नानादि से निवृत्त होकर महिलाएं पूजा स्थल और घर के हर द्वार तथा आंगन के मध्य मांदले पर लाल मिट्टी सहित "घनोटी" (वृत्ताकार लीपकर) देकर देवदार के पराग कणों से पारंपरिक रेखाएं बनाकर पूजन कर पूजा कक्ष में गणेश जी की स्थापना कर पृष्ठ भाग में भयाइयों को स्थापित करती हैं तथा दीवार के सहारे दारूहरिद्रा की टहनियों में एक-एक बाबरु बींध रख देते हैं। साथ ही लकड़ी की तलवार और आटे से बने बकरे की स्थापना कर पुष्प धूप दीप नैवेद्य अर्पित कर पूजा अर्चना कर चार बाबरु और एक भले का भोग लगाकर देवी-देवताओं भयाइयों से मंगलमय जीवन का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। परिवार की सबसे वरिष्ठ महिला दादी /माता सभी सदस्यों के माथे पर तिलक लगाकर और एक थाली में चार बाबरु एक भल्ला व दान राशि प्रदान करते हैं। इस भोज्य सामग्री को प्राप्त करने वाले सदस्य दादी /मां और अन्य वरिष्ठ सदस्यों के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त कर भोजन ग्रहण करते हैं। इसके बाद एक दूसरे के साथ होली खेलकर सामुहिक होली खेलने के लिए सुकेत अधिष्ठात्री राजराजेश्वरी महामाया पांंगणा के परिसर में इकट्ठे होकर एक दूसरे को रंगों से रंगमय करते हैं। महामाया माता के श्री विग्रहको विभिन्न रंगों के पुष्प अर्पित कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। ढोल नगाड़े की चहुंओर गूंजते स्वरों के साथ बाजार के घर घर होली खेलने के लिए निकल पड़ते हैं।कौतुहल में नृत्य करते हुए एक-दूसरे पर गुलाल और विभिन्न रंग डाल मस्ती में झूम उठते हैं। हास-परिहास कर मन के पाप को बाहर निकाल सभी को व्यंग्यात्मक व प्रेमरस से सराबोर करते हैं। चारों ओर बजते वाद्य के साथ महिलाओं की अलग टोली के श्री हरि के भजन कीर्तन से गलियांव वादियां मुखरित हो जाती हैं। रात को शुभ मुहूर्त में पहले दिन लाई चील और पाजे की हरी टहनी को अन्य सूखी लकडिय़ों सहित घर के आंगन में रखते हैं। पूजा स्थल में रखी दारूहरिद्रा की 5 टहनियों में बींधे बाबरुओं सहित आटे के बकरे को लाकर अलाव जलाने वाले ढेर में रख अग्नि प्रज्वलित कर पूजन करते हैं। परिवार का एक बालक आटे के बकरे की बलि देकर इसे अग्नि को स्मर्पित कर सभी सदस्य अग्नि की चार चार बार परिक्रमा कर नतमस्तक होकर अग्नि माता साथ रक्षा की कामना करते हैं तथा फिर वरिष्ठ जनों के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त कर इस अलाव को सेंकते हैं। सूखे मेवों से बना प्रसाद वितरित और ग्रहण कर सभी सदस्य साथ मिल बैठकर रात्रि भोजन करते हैं।
पांगणा करसोग मण्डी, हिमाचल प्रदेश
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