(मनोज भाटिया), शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
दलित संगठनों के भारत बंद के दौरान जगह-जगह आंदोलनकारियों की पुलिस-प्रशासन के साथ झड़प हुई, कहीं-कहीं पुलिस को स्थिति संभालने के लिए फायरिंग भी करनी पडी। कई सरकारी और गैर सरकारी वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया और ये सब उस वक्त हुआ जब सरकार सुप्रीमकोर्ट के फैंसले के खिलाफ पुर्नविचार याचिका दाखिल करने का ऐलान सार्वजनिक रूप से कर चुकी थी और सूत्रों की मानें तो सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय द्वारा दाखिल किए जाने वाली इस याचिका में यह तर्क दिया है कि कोर्ट के फैसले से एससी और एसटी ऐक्ट 1989 के प्रावधान कमजोर हो जाएंगे। याचिका में यह भी तर्क दिया गया है, कि कोर्ट के मौजूदा आदेश से लोगों में कानून का भय खत्म होगा और इस मामले में और ज्यादा कानून का उल्लंघन हो सकता है। इसके साथ पुर्नविचार याचिका का सबसे बडा आधार यह तथ्य है कि कानून बनाने के मामले में संसद की सर्वोच्चता है। न्यायपालिका को केवल कानून की समीक्षा करने का हक है, कानून बनाने का नहीं, इसलिए एससी-एसटी एक्ट में संशोधन करने का अधिकार केवल संसद का है।
ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस एक्ट के तहत कानून का दुरुपयोग हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट के तहत दर्ज मामलों में तत्काल गिरफ्तारी न किए जाने का आदेश दिया था। इसके साथ ही इसके तहत दर्ज होने वाले केसों में अग्रिम जमानत को भी मंजूरी दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पुलिस को 7 दिन के भीतर जांच करनी चाहिए और फिर आगे एक्शन लेना चाहिए। अगर अभियुक्त सरकारी कर्मचारी है तो उसकी गिरफ्तारी के लिए उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी की सहमति जरूरी होगी। उन्हें ये लिख कर देना होगा कि उनकी गिरफ्तारी क्यों हो रही है। अगर अभियुक्त सरकारी कर्मचारी नहीं है तो गिरफ्तारी के लिए एसएसपी की सहमति जरूरी होगी, इससे पहले ऐसे केस में सीधे गिरफ्तारी हो जाती थी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भाजपा सांसद उदित राज ने निराशा जताते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं है, बल्कि एक जाति को लेकर पक्षपात और धोखाधड़ी भी है। उदित राज के मुताबिक कोई भी सीनियर अधिकारी अपने जूनियर को गिरफ्तार करने की अनुमति नहीं देगा। उन्होंने कहा अगर सीनियर अधिकारी और जूनियर के बीच अच्छे संबंध हैं, तो वो गिरफ्तार करने की अनुमति नहीं देगा। रिश्वत या फिर राजनीतिक हस्तक्षेप के इस्तेमाल से भी वो गिरफ्तारी से बचने की कोशिश करेगा। साथ ही उन्होंने कहा कि एससी/एसटी एक्ट से ज्यादा दहेज विरोधी कानून का दुरुपयोग किया जाता है। उनका कहना है कि दहेज विरोधी कानून के दुरुपयोग के चलते लगभग 64,000 पुरुषों ने आत्महत्या की है। दहेज से संबंधित केस न होने के बावजूद इस कानून का अंधाधुंध इस्तेमाल किया गया।
जानकारों की मानें तो एससी/एसटी के होते हुए भी एससी/एससी पर अत्याचारों की संख्या 2007 से 2017 में बढ़ कर 66 फीसदी हो गई है। इस दौरान भारत में हर 15 मिनट में छह दलित महिला बलात्कार का शिकार हुई। इसमें कोई शक नहीं कि एससी एसटी अत्याचार निरोधक कानून के जिन कुछ महत्वपूर्ण प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त कर दिया है, उससे ये कानून काफी कमजोर हो जायेगा। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने एससी एसटी अत्याचार निरोधक कानून के तहत गिरफ्तारी के लिए जो व्यवस्था दी है वो इस कानून का मजाक उड़ाने जैसी हैं। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार सरकारी कर्मचारी की गिरफ्तारी के लिए विभागीय नियुक्ति अधिकारी की सहमति और गैर सरकारी व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए एसएसपी की सहमति, वास्तव इस ऐक्ट को अन्य मामूली धाराओं से भी कमजोर बना देगी। महत्वपूर्ण बात यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद 2015 में संशोधन लाकर इस कानून को सख्त बनाया था और इसके तहत विशेष कोर्ट बनाने और तय समय सीमा के अंदर सुनवाई पूरी करने जैसे प्रावधान जोड़े थे और 2016 को गणतंत्र दिवस के दिन से संशोधित एससी-एसटी कानून लागू हुआ था।
जानकारों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने बिना आंकड़ों के ही यह मान लिया कि इस कानून का दुरुपयोग होता है। उनका कहना है कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि दुरुपयोग के कुछ मामले हुए होंगे, लेकिन दुरुपयोग का कोई ठोस आंकड़ा नहीं है। उनके अनुसार किसी भी ऐक्ट के साथ उसका दुरूपयोग हो सकता है। यह जांच एजेंसियों और न्यायपालिका पर है कि किसी कानून का दुरुपयोग न हो। भारत की सामाजिक स्थितियों पर नजर डालें तो संस्थाओं में उच्च पदों पर दलितों और आदिवासियों का प्रतिनिधित्व न के बराबर है, ऐसे में न्याय पाना उनके लिए आसान नहीं है, इसी लिए एससी-एसटी एक्ट जैसे कानून की जरूरत पड़ी थी। जानकारों का कहना है कि यह फैसला लागू हुआ तो एससी-एसटी एक्ट के तहत गिरफ्तारी लगभग असंभव हो जाएगी, इन परिवर्तनों के बाद एससी-एसटी एक्ट भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी के धाराओं से भी कमजोर हो चुका है, क्योंकि आईपीसी की धाराओं में गिरफ्तारी के लिए इतनी जटिलताएं नहीं हैं।
बता दें कि 1955 के प्रोटेक्शन आॅफ सिविल राइट्स एक्ट के बावजूद न तो छुआछूत का अंत हुआ और न ही दलितों पर अत्याचार रुके थे। 1989 का एससी-एसटी एक्ट इसकी खामियों को दूर करने और इन समुदायों को अन्य समुदायों के अत्याचारों से बचाने के मकसद से लाया गया। अगर वास्तविकता पर गौर किया जाये तो स्पष्ट हो जाएगा कि सरकारों ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है। दूसरी ओर अगर थोडा ठंडे दिमाग से विचारे तो समझ में आ जायेगा कि यह कानून संसद ने पारित किया है। देश में कानून बनाने की यही प्रक्रिया है। कानून बनाने के मामले में संसद की सर्वोच्चता है। न्यायपालिका को केवल कानून की समीक्षा करने का हक है, कानून बनाने का नहीं। इसलिए एससी-एसटी एक्ट में संशोधन करने का अधिकार केवल संसद का है। इस मामले में अच्छा होता कि दलित संगठन विपक्षी दलों के हाथों की कटपुतली ने बनकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कानूनी दांवपेज द्वारा सुप्रीमकोर्ट में करते। मामले का राजनीतिकरण न करके अपनी ओर से भी कैवियट या पुर्नविचार याचिका दाखिल करते, जिससे न केवल सरकार द्वारा दाखिल पुर्नविचार याचिका में यदि कोई खामी रह जाती है तो उसकी पूर्ति भी हो जाती, साथ ही सरकार द्वारा दायर की गयी पुर्नविचार याचिका को भी बल मिलता।
वरिष्ठ पत्रकार, खतौली