(आशुतोष), शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
ऐ मन! समझ
क्यूँ बने नासमझ
जिद धरे बेहिचक
पूरी कैसे हो ये समझ?
ऐ मन! तू होत अधीर
दिल बेचैन और आँखो में नीर
तू चंचल चित्तचोर क्यू ढ़ाता कहर
मैं तेरे आगे रहूँ बेवस हर पहर।
जितनी भी तू चाह करे
मैं पूरा करने को तत्पर
फिर भी न तू सब्र करे
तेरी भूख न अंत धरे
ऐ मन, तू क्यूँ न शांत रहे?
मन की गति का न कोई अंत
अनंत सागर की गोते हैं
भागता फिरे सारा जीवन
फिर भी न होता इसका अंत।
दुर्लभ मन विकराल बनता
इच्छाओं का शैलाव उमड़ता
मिलते मिलाते पूरा करते
मन के अंदर जीवन सिमटता।
ऐ मन! तू मधुर एहसास मेरी
कड़वी से कड़वी सच्चाई
एक मन, लाखों इच्छाएँ तेरी
इसलिए जीवन की दवाई मेरी।
पटना, बिहार