( अवधेश कुमार निषाद मझवार), शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
दीपावली के त्यौहार की वजह से एक दिन पहले अपने कार्यालय से उपेंद्र सिंह चौहान जी से जल्दी घर जाने के लिए मैं अनुमति लेकर घर के लिए निकल गया। मैंने फतेहाबाद के लिए बस पकड़ी, लेकिन बस में त्यौहार की वजह से सीट ना मिल सकी और उपर से किराया पूरा पैंतीस रुपए लगा। मैंने सोचा कोई बात नहीं घर जल्दी पहुंचना है। जैसे ही बस फ़िरोज़ाबाद चौराहे के नजदीक पहुंची, तो मैंने बस के ड्राइवर साहब को इशारा किया कि साहिब बस को रोक कर चलना। उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए बस को रोक दिया। और फिर क्या झटसे मैं अपना बैग लेकर उतर गया। जैसे ही मुझे मेरे बचपन की याद आ गई।
वह याद मिट्टी के दिए (दीपक) थे। जो दिवाली के दिन उनमें तेल भरकर घर की छत की दीवारों पर सजोते हैं। मैं उन्हें खरीदने के लिए बड़ा उत्साहित हुआ। मिट्टी के दीपक एक 75 वर्ष के बूढ़े बाबा बेच रहे थे। मैंने पूछा बाबा जी क्या भाव है। उन्होंने कहा बेटा 60 रुपए के सैकड़ा, मैंने कहा बाबा जी सौ दीपक पैक कर दीजिए। उन्होंने पैक कर मेरे हाथ में थमा दिए। मैंने बाबा जी को साठ रुपए दिए। चलने से पहले मैंने पूछा क्या नाम है बाबा जी आप का। बुढ़ापे की वजह से उन्होंने धीमी आवाज में कहा सदासुख है। मैं धन्यवाद कहकर घर की ओर रवाना हो गया। क्योंकि जल्दी आने को घर से फोन आ रहे थे। जैसे ही घर पहुंचा तो देखा माता-पिता जी घर पर नहीं थे। वह किसी काम के चलते गांव में किसी के घर गए थे। घर में केवल भतीजा राजू और मेरी पत्नी मनु मिली। तो मैंने मनु से बोला, मैं तुम्हारे लिए कुछ लेकर आया हूं। जब तुम उस सामान को देखोगे तो बहुत ख़ुश होगे। आंखें बंद करो। उन्होंने आखे बंद की मैंने मिट्टी के दीपक सामने करके कहा अब आखें खोलो, आंखें खोलकर मनु बोली ये क्या, ये तो मिटटी के दीपक हैं। वह भी बिना डिजाइन के मनु ने कहा मैंने तो सोचा था। कि इस बार नया घर बनाया है।
दीपावली पर रंग-बिरंगे डिजाइन दार दीपक खरीदेंगे। मैने कहा कोई नहीं अगर तुम्हें पसंद नहीं है। तो तुम मेरे साथ चलो, इन्हें वापस करके फैंसी ख़रीद लेते हैं। वह मान गई। हम मोटरसाइकिल से बाजार की तरफ निकल पड़े। जैसे ही बाज़ार के नज़दीक पहुंचे। तो मैने कहा पहले रंग-बिरंगे दीपक खरीद लेते है। बाद में मिटटी के दीपक वापस कर देंगे। फैंसी दीपक की दुकान पर लंबी लाइन लगी होने के कारण तीन घंटों की मशक्कत के बाद 1200 रुपए के सैकड़ा मिले। एक रुपए कम नहीं किया। मैंने सोचा यह तो मिट्टी के दीयों से 20 गुना महंगे हैं। मतलब हम लोगों ने 20 लोगों को बेरोजगार कर दिया। जो मिट्टी के दिए बेचते हैं। अब मिट्टी के दीपकों को बाबा सदासुख जी के पास लेकर पहुंचे। तो उन्होंने पूछा क्या हुआ बेटा, कुछ भूल गए हो यहां पर, मैंने कहा नहीं बाबा जी यह मिट्टी के दिए वापस करने आए हैं। और यह सुनकर वह एकदम सोच में पड़ गए। मैंने अपनी पत्नी मनु की तरफ देखते हुए पूछा। क्या हुआ बाबा जी, उन्होंने भावुक होकर बड़ी नम्रता से कहा। मेरे घर में पांच बेटियां हैं, बेटा एक भी नहीं है। बेटियों ने मुझसे पांच महीने पहले मिठाई खाने के लिए कहा था। मैंने उनसे बोला था, कि जब मिट्टी के दीपक दिवाली पर बनाकर बेचेंगे। तब हम मिठाई खायेंगे। उनकी आंखों में आंसू भर आए और कहने लगे भला में कैसा पिता हूं कि अपनी बेटियों को लोग खेत-जायदाद खुशी-खुशी सौंप देते हैं। मैं उन्हें मिठाई नहीं खिला सका। घर जाकर बोलूंगा कि बेटियों में तुम्हें मिठाई नहीं खिला सका, हो सके तो मुझे माफ कर देना, लेकिन भविष्य में मिठाई खिलाने की कोशिश जरूर करूंगा।
सदासुख नाम होते हुए भी सुख का मुंह नहीं देख पा रहा था। यह सब देखकर मनु से रहा नहीं गया, उसने मेरे हाथ से फैंसी दीपक व मिठाई का डिब्बा जो घर के लिए लिया था। वह लेकर उसने बाबा जी को सौंप दिए। और कहा ये लो मिठाई इस बार बेटियों को हमारी तरफ से मिठाई खिलाना, यह सब देखकर बाबा बहुत खुश हुए। फिर हमने कहा कि हम लोग मिट्टी के दीयों से ही जीवन भर दिवाली का त्यौहार मनाएंगे। उसके बाद दोनों घर की ओर वापस चल दिए।
आज भारतवर्ष में फैशन के चलते बेरोजगारी पैदा हुई है। सब लोग पुरानी परंपराओं को भूलकर फैशन के दौर की तरफ अग्रसर हो रहे हैं। अगर ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन बेरोजगारी से लोगों की जान जाने लगेंगी। मैं अवधेश कुमार निषाद मझवार कहता हूं, कि अगर त्योहारों पर सामान खरीदें, तो किसी गरीब दुकानदार से खरीदें, न कि बड़े-बड़े मॉलों से ताकि आपकी वजह से किसी का परिवार चल सके। मैं तो यह मानता हूं कि अमीरों के मसीहा गरीब हैं। आखिर गरीबी को हर नागरिक को समझना पड़ेगा। तभी देश का भला हो सकता है। एक कदम भलाई की ओर....
ग्राम पूठपुरा पोस्ट उझावली फतेहाबाद आगरा