बाजारवाद

डॉ. अवधेश कुमार "अवध", शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
बाजारवाद के चंगुल में
ऑक्टोपस की कँटीली भुजाओं सरिस
जकड़ रहा है सबको 
व्यापक बाजारवाद
जन साधारण की औकात
एक वस्तु जैसी है
कुछ विशेष जन 
वस्तु समुच्चय ज्यों हैं
हम स्वेच्छा से बिक भी नहीं सकते
हम स्वेच्छा से खरीद भी नहीं सकते
पूँजीपति रूपी नियंता
चला रहा है पूरा बाजार
जाने- अनजाने हम 
सौ-सौ बार बिक रहे हैं
किसी और की मर्जी से
हम हँसते या रोते दिख रहे हैं
आँसू बेचकर भी कई मालामाल हैं
हँसी बेचकर भी कई बेमिसाल हैं
सब कुछ बिकाऊ है
सबके खरीददार हैं
इस अंतहीन भयानक पतन के दौर में
किसी के भी शुद्ध या बुद्ध 
होने की आशा न करें
सत्य यह है कि-
हमारी इच्छाएँ भी नहीं हैं हमारी
बल्कि, कठपुतली बनी हुई हैं
बाजारवाद के नरभक्षी चंगुल में।
साहित्यकार व अभियंता मैक्स सीमेंट, ईस्ट जयन्तिया हिल्स मेघालय

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