सती का प्रश्न तथा उसके उत्तर में भगवान् शिव द्वारा ज्ञान एवं नवध भक्ति के स्वरूप का विवेचन........
गतांक से आगे............ परमेश्वरी! तुम विज्ञान को परमतत्व जानो। विज्ञान वह है, जिसके उदय होने पर मैं ब्रह्म हूं, ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाता है। ब्रह्म के सिवा दूसरी किसी वस्तु का स्मरण नहीं रहता तथा उस विज्ञानी पुरूष की बुद्धि सर्वथा शुद्ध हो जाती है। प्रिये! वह विज्ञान दुर्लभ है। इस त्रिलोकी में उसका ज्ञाता कोई विरला ही होता है। वह जो और जैसा भी है, सदा मेरा स्वरूप ही है, साक्षात्परात्पर ब्रह्म है। उस विज्ञानी की माता है मेरी भक्ति, जो भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करने वाली है। वह मेरी कृपा से सुलभ होती है। भक्ति नौ प्रकार की बताई गयी है। सती! भक्ति और ज्ञान में कोई भेद नहीं है। भक्त और ज्ञानी दोनो को ही सदा सुख प्राप्त होता है। जो भक्ति का विरोधी, उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। देवि! मैं सदा भक्त के अधीन रहता हूं और भक्ति के प्रभाव से जातिहीन नीच मनुष्यों के घरों में भी चला जाता हूं। इसमें संशय नहीं है।
भक्तौ ज्ञाने न भेदो हि तत्कर्तुः सर्वदा सुखम्, विज्ञानं न भवत्येव सति भक्तिविरोधिनः।
भक्ताधीनः सदाहं वै तत्प्रभावाद् गृहेष्वपि, नीचानां जातिहीनानां यामि देवि न संशयः
(शि.पु.रू.सं.स.ख. 23/16-17)
सती! वह भक्ति दो प्रकार की है-सगुणा और निर्गुणा। जो वैधी ;शास्त्र विधि से प्रेरितद्ध और स्वभाविकी (हृदय के सहज अनुराग से प्रेरित) भक्ति होती है, वह श्रेष्ठ है तथा इससे भिन्न जो कामनामूलक भक्ति होती है, वह निम्नकोटी की मानी गयी है।
(शेष आगामी अंक में)