यह ज़िंदगी हमारी है







प्रभाकर सिंह, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

 

बुद्ध ने बहुत पहले ही कह दिया था कि अपना दीपक स्वयं बनो। प्रकाश फैलाओ और अपने आसपास के अंधेरे मिटाओ। स्वयं पर निर्भर रहो। परेशान मत होइए मैं उपदेश नहीं देने वाला किसी को,यद्यपि यहाँ प्रवचन देने वालों की बहुतायत है। कहावत ही है, पर उपदेश कुशल बहुतेरे। कोई समस्या हुई नहीं कि उसके पारलौकिक हल निकालने वालों की बाढ़ आ जाती है। हम लोग कभी वर्तमान में जी नहीं पाते हैं। कोई विपदा आयी नहीं, कोई कष्ट हुआ नहीं कि बस ख़ुदा, अल्लाह, भगवान को ज़िम्मेदार ठहरा दिया।  इससे आसान कुछ होता भी नहीं। जब सब भगवान ने ही किया तो फिर कैसी हमारी ज़िम्मेदारी? जब ज़िम्मेदारी नहीं तो फिर काहे की चिंता। हम अपना दीपक स्वयं क्यों बनें? दूसरे दीपक जलाएंगे और हम चैन से सो जाएंगे।

दो दिन पहले डॉ अम्बेडकर की जयंती थी। उनको पूजने वालों की बाढ़ सी आई हुई थी। शायद यह बड़ा आसान भी है कि महान लोगों की जयंतियों पर धूप बत्ती सुलगाओ और फेसबुक पर फ़ोटो लगाकर चंपत हो जाओ और साल भर अपने अनुसार अपनी जिंदगी बिताओ। इससे बेहतर श्रद्धा क्या हो सकती है, किसी के प्रति। श्रद्धा भी बनी रही और ज़िंदगी भी चलती रही। यह सोचने की क्या ज़रूरत है कि  बाबा साहेब ने ज़िन्दगी भर जो संघर्ष किया, जो ज्ञान अर्जित किया, वैसा कुछ करने का प्रयास करें। अरे! अगर पावर प्लांट न लगा सकें तो कम से कम एक दीपक ही जला दें और अपने इर्दगिर्द के अँधेरे मिटा दें।

लेकिन हाय रे! भारतीय समाज। जहाँ दीपक जल रहा हो तो उस पर लोग गोबर फेंक देने में विश्वास रखते हैं। अब यदि सब अपने दीपक बन जायेंगे तो गोबर कब काम आएगा और अफ़वाह की आग में लोग कैसे जलेंगे और लोकतंत्र भीड़तंत्र कैसे बन पाएगा?  जब सब लोग स्वयं का दीपक बनने लगेंगे तो भेड़ की तरह कोई भी नेता, अभिनेता जनता को हाँक नहीं पाएगा, न कोई मदारी डमरू बजाएगा और न ही डुग-डुग करता कोई बंदर आएगा। हीरो वरशिप ख़त्म हो जाएगी, लेकिन इस देश और समाज की सामंती मानसिकता कभी ऐसा नहीं होने देगी शायद? ज़िम्मेदारी लेना सीखेंगे नहीं। हर छोटी बड़ी बात के लिए किसी और को ज़िम्मेदार ठहरा देना बड़ा आसान जो होता है कि तुमने ऐसा किया होता ,सही सलाह दिया होता तो ज़िंदगी में कुछ परिवर्तन हो जाता। 

यहाँ तो हर व्यक्ति नेताओं जैसे व्यवहार करता है और हर समस्या की ज़िम्मेदारी विपक्ष पर डाल कर फ़ारिग हो जाना चाहता है, बिल्कुल कई सरकारी अफ़सरों की तरह जो सफ़लता का सारा श्रेय ख़ुद की लीडरशिप को देना चाहते हैं और असफ़लता का ठीकरा अपने मातहतों पर फोड़ देना चाहते हैं। बिल्कुल ऐसा ही राजनीतिक पार्टियों में होता है, जब वे चुनाव जीतती है तो केंद्रीय नेतृत्व सारा श्रेय ले जाता है और हारती है तो कार्यकर्ता ज़िम्मेदार माना जाता है।

सच तो यह है  लोकतंत्र एक ऐसा तंत्र है, जिसमें तंत्र के हर व्यक्ति को दीपक बनने की ज़रूरत होनी चाहिए, लेकिन लोकतंत्र के अधिनायक ऐसा बिलकुल पसंद नहीं करते। उनका पूरा प्रयास होता है कि जनता को बस बरगलाए रखो और उनके आँख पर अज्ञानता का चश्मा लगाए रखो।  लोकतंत्र का तंत्र नहीं चाहता है कि लोक रहे, बस तंत्र बचा रहे। इसलिए ज़रूरी है कि लोक को स्वयं दीपक बनना पड़ेगा, तभी लोक से सही वाला तंत्र बन पाएगा और लोकतंत्र सही में सफल हो पाएगा। आख़िर ज़िन्दगी हमारी है, तो इसको संवारने की ज़िम्मेदारी भी हमारी है।

 

रिसर्च स्कॉलर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद







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