(हितेन्द्र शर्मा) शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
कहने को तो हम 21वीं सदी में जी रहे हैं, लेकिन जब बात सुविधाओं की आती है तो लगता है अभी हम आदम युग में ही सांस ले रहे हैं। सभ्यता के इस युग में भी जब कानून की दुहाई देकर आमजन को लुभाया जाता है कि कानून सबके लिए बराबर है, लेकिन जमीनी हकीकत आज भी कुछ और ही है। यह दुर्भाग्य ही तो है कि जब भी लाखों, करोड़ों के मालिक भारतीय लोकतंत्र के कथित रक्षक सड़कों पर अपनी राजनीति चमकाने के लिए उतरते हैं तो उस समय समूचा शासन-प्रशासन इनके सामने नतमस्तक हा जाता हैं।
प्रश्न उठता है कि क्या कानून सभी के लिए बराबर है और क्या पुलिस वास्तव में जनता की सुरक्षा के लिए सदैव तत्पर है? यदि हाँ, तो चक्का जाम जैसे विरोध-प्रदर्शनों में फंसे मरीजों, बुजुर्गों और गंभीर रूप से घायल लोगों के मानवाधिकार पर बेजान सी खामोशी क्यों? जवाब आता है कि सारे संवैधानिक अधिकार, मानवाधिकार, देशहित और सम्पूर्ण आजादी सिर्फ शब्दों तक ही सीमित है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि आज आजादी के इतने वर्षों बाद भी ''जिसकी लाठी उसकी भैंस'' के सिद्धांत पर देश चल रहा है।
आज भी आलम ये है कि आम नागरिकों से यदि भूल कर भी कोई भूल हो जाए तो क्या अधिकारी, क्या तंत्र, क्या सता और क्या विपक्ष सभी आमजन को उसका अहसास करवाने और सजा दिलवाने में एकजुट रहते हैं, लेकिन जब बात खासजन की आती है तो अधिकारियों से लेकर सत्ता और विपक्ष पूरा तंत्र सभी न केवल खास के बचाव में उतरती हैं, बल्कि लोकतंत्र ही खतरे में आ जाता है। परिस्थितियों में बदलाव होते ही सब गोलमाल नजर आता है।
मेरा मानना है कि अन्याय के खिलाफ और अपने अधिकारों के लिए विरोध-प्रदर्शन भी आवश्यक है, लेकिन क्या आम नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का हनन करते हुए उनके साथ प्रत्यक्ष रूप में अन्याय कर सिर्फ अपनी मनमानी करना, जायज नहीं हो सकता। सड़कों पर लगभग रोज-रोज होने वाले विरोध-प्रदर्शन एवं चक्का जाम से सीधे तौर पर आम नागरिकों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है। राजनीति चमकाने के चक्कर में यह नेता अपने ही नागरिकों के साथ अन्याय करते नजर आते हैं। मरीजों और तीमारदारों को रास्ता देना, महिलाओं, बच्चों और आम नागरिकों का सहयोग करना शायद इनकी शान के खिलाफ है। भले ही आम नागरिकों, मरीजों, बुजुर्गों, महिलाओं व बच्चों की मौत क्यों न हों जाए, लेकिन यह नेता तो सड़कों अपना विरोध प्रदर्शन जारी रखेंगे। आखिर अपनी राजनीति भी तो चमकानी है। मैं पूछता हूं ये दोहरे मापदंड क्यों?
जानकारों की मानें तो जब तक प्रशासन और आम नागरिक हाथ पर हाथ धरे बेजान खामोशी से यह मंजर देखने की लत नहीं छोड देतें। आपसी फुसफुसाहट की जगह खुलकर अपनी बात नहीं रखते, तब तक ऐसे अराजक प्रदर्शनकारियों के हौंसले बुलंद होते रहेेंगे। यह समय की मांग है कि आप गलत को गलत और सही को सही कहने की हिम्मत करें, वर्ना भविष्य में किसी भी प्रकार की उम्मीद रखना ही बेमानी हो जायेगा। वर्तमान में यदि हम सभी एक-दूसरे की टांगे खिचने की जगह सकारात्मक सहयोग के रुप में हाथ खिंचने की आदत अपना ले, तभी इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य की कल्पना साकार हो सकती है।
कुमारसैन, जिला शिमला, हि.प्र.
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