छत्रप्रभाकर............. (9) राजन्य महात्म्य


गतांक से आगे.....
अथछत्रप्रभाकरः
यस्माज्जातं जगद्धाम सत्याद्भानं च पावनम्।
यस्याम्नातं महत्णम तस्याह्नानं सदाघनम्।।
भान निधान प्रधान पर शम भर यजत विभास।
मान विधान प्रदान कर तम हर जगत निवास।।
1-राजन्य महात्म्य
पातंजल योगदर्शन तस्य वाचकः प्रणवः सूत्र में परमेश्वर का मुख्य नाम प्रणव (ओइम) बतलाया गया है, तद्वत् रिग्वेद के बाहू राजन्य कृतः इस  वचन में द्वितीय वर्ण का मुख्य नाम राजन्य कहा गया है। पर अन्य ग्रन्थों में बहुधा क्षत्र या क्षत्रिय शब्द का प्रयोग किया गया है। क्षतात् दुःखात् त्रायते इति क्षत्रः पृषोदरादित्वात्साधुः अर्थात जो क्षत (दुख) से बचाता है, वह क्षत्र है। क्षत्र शब्द से ही क्षत्रे राष्ट्रे साधु तस्यापत्यं जातौ वाघः) क्षत्रिय शब्द बना है। वृहदारण्यक उपनिषद् में क्षत्र जाति के प्रभव व उत्कर्ष विषयक जो  लेख है वह आगे उद्धृत है। 
ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्। एकमेव तदेकं सन्नव्यभवत्। तच्छ्रेयो रूपमत्य सृजत क्षत्रम्। यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणीन्द्रो वरूणः  सोमो रूद्रः पर्जन्यो यमोमृत्युरोशान इति तस्मात्क्षत्रात्परं नास्ति तस्माद् ब्राह्मणः क्षत्रिय मधस्तादुपासते राजसूये। क्षत्र एवं तद्शो दधाति। सैषाक्षत्रस्य योनिर्यद् ब्रह्म। तस्माद्यद्यपि राजा परमतां गच्छति ब्रह्मै वान्तत उपनिश्रयति स्वांयोनिम्। अस्य भाषान्तर-सृष्टि के आरम्भ में एक ब्रह्म ही था। वह एक था। अतः विस्तृत नहीं हुआ, तब उसने उत्कृष्ट रूप क्षत्र निर्माण किया। उसने देवरक्षक इन्द्र, वरूण, सोम, रूद्र, पर्जन्य, यम, मृत्यु और ईशान इन क्षत्रों को बनाया। अतः क्षत्र से बडा कोई नहीं है। यही कारण है कि ब्राह्मण राजसूय यज्ञ में क्षत्रिय से नीचे बैठता है (या उपासना करता है)।
वह (ब्रह्म) क्षत्रिय ही में यश स्थापित करता है। वह ही क्षत्र की योनी (उत्पत्ति का स्थान) है। अतः राजा यद्यपि सबसे उच्च स्थान प्राप्त करता है। अन्त में अपनी योनी ब्रह्म में ही शरण पाता है।
(क्रमशः)


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