नगर में पहली बार गंगनहर के तट पर सामूहिक श्राद्धकर्म व तर्पण पितृपक्ष की अमावस्या को

शि.वा.ब्यूरो, खतौली। हिन्दू धर्म के अनुसार प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता, पूर्वजों को नमस्कार या प्रणाम करना हमारा कर्तव्य है। हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं। यदि किसी कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है, जिसे श्राद्ध कहते हैं। ब्रह्म पुराण में कहा गया है कि जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है, लेकिन अधिकतर लोगों को श्राद्ध के विधिविधान और इसके महत्व के सम्बन्ध में सही जानकारी नहीं है। इसीलिए श्रद्धालुओं को इसके बारे में जागरूक करने के लिए नगर में पहली बार गंगनहर के तट पर सामूहिक श्राद्धकर्म कराने पर विचार किया जा रहा है। 

उक्त के सम्बन्ध में पंड़ित लक्ष्मी प्रसाद मैंदुली ने बताया कि पितृपक्ष की अमावस्या को गंगनहर के किनारे सामूहिक श्राद्धकर्म कराने पर विचार किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि वास्तविक स्वच्छ स्थलों, नदी-तटों पर श्राद्ध करने से पितर अधिक प्रसन्न होते हैं। उन्होंने बताया कि पुराणों में आता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस (पितृमोक्ष अमावस) के दिन सूर्य एवं चन्द्र की युति होती है। सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है। इस दिन हमारे पितर यमलोक से अपना निवास छोड़कर सूक्ष्म रूप से मृत्युलोक में अपने वंशजों के निवास स्थान में रहते हैं। अतः उस दिन उनके लिए विभिन्न श्राद्ध व तर्पण करने से वे तृप्त होते हैं। 

उन्होंने बताया कि श्रीविष्णु के अवतार वाराहदेव ने श्राद्ध की संपूर्ण कल्पना विश्व को दी थी। वाराहदेव के बताए अनुसार पितरों की पिंडपूजा आरंभ हुई थी। उन्होंने बताया कि पितृकार्य को कर्मकांड में प्रत्यक्ष कर्तव्य का स्थान दिया गया है। उन्होंने बताया कि पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितरों का आशीर्वाद मिलता है और परिवार में सुख-शांति बनी रहती है। इसके साथ ही पितृदोष से मुक्ति प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि श्राद्ध को पितरों के प्रति अपने ऋण चुकाने का एक तरीका भी माना जाता है। 

उन्होंने बताया कि पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि ब्रह्माजी के पुत्र ऋषि अत्रि ने अपने वंशज निमि को श्राद्धकर्म की विधि बताई थी, जिसके बाद निमि ने सबसे पहले श्राद्ध किया। श्री राम ने भी वनवास के दौरान अपने पिता का श्राद्ध किया था। महाभारत काल में कर्ण ने अपने पूर्वजों का तर्पण और पिंडदान किया, जिसे सोलह दिनों तक किया गया, जिसे आज पितृपक्ष के रूप में मनाया जाता है। उन्होंने बताया कि श्राद्ध व तर्पण पूर्वजों की आत्मा को तृप्त करने और उन्हें शांति प्रदान करने का एक तरीका है। 






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