मंच पर जीवन का सही चित्रण ही नाटक है

प्रसिद्ध उत्तराखंडी नाटककारों को जानें श्रृंखला में इस बार गढ़वाली, हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं में नाटक लिखने वाले ग्रीनानंद अर्थात सुरेश नौटियाल के बारे में आपको इस साक्षात्कार के माध्यम से बता रहे हैं। 

भीष्म कुकरेतीः गढ़वाली रंगमंच में आपके योगदान के परिप्रेक्ष्य में आज आपके बारे में जानने को उत्सुक्त हूं, अपने जन्मस्थान और जन्म से आरंभ करें।

सुरेश नौटियालः मेरा जन्म विक्रम सम्वत 16 गते वैशाख 2013 अर्थात 29 अप्रैल 1956 को गढ़वाल जनपद के पौड़ी ब्लॉक में उणचिर ग्राम पट्टी इडवालस्यूं में हुआ था। मेरी मां का नाम आनंदी और पिता का नाम चैतराम है। मेरी दादी का नाम इंद्रा और दादा का नाम बलभद्र है. इनमें से कोई भी अब जीवित नहीं है, परन्तु एक बात कहना चाहूंगा कि मेरी आधिकारिक जन्मतिथि 3 अक्टूबर 1956 है। वैसे तो प्राइमरी स्कूल में भी मेरी जन्मतिथि सही नहीं लिखाई गयी थी, पर मैंने एक विशेष प्रयोजन से इस जन्मतिथि में परिवर्तन किया। छठी कक्षा पास कर जब चंडीगढ़ से दिल्ली स्कूल में प्रवेश लेने आया तो ब्लेड से खुरचकर अपनी जन्मतिथि 3 अक्टूबर कर दी। वर्ष 1956 ही रहने दिया। सोच यह थी कि बड़े होकर महात्मा गांधी जैसे बड़े काम करने हैं और बदले में देश मेरे जन्मदिन पर अवकाश तो घोषित करेगा ही, लिहाजा 2-3 अक्टूबर को एक-साथ छुट्टी रहेगी तो इस भावना के चलते मेरे बाल-मन ने यह अपराध कर दिया। अब आधिकारिक कार्यों के अतिरिक्त मैं अपनी जन्मतिथि 29 अप्रैल ही मानता हूं।

भीष्म कुकरेतीः प्रारंभिक शिक्षा के बारे में बताएं।

सुरेश नौटियालः मेरी शिक्षा आधारिक विद्यालय ग्राम पिसोली, इडवालस्यूं से आरंभ हुयी। गणित में अच्छा नहीं था पर गिनती कुशाग्र छात्रों में होती थी। पांचवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में स्कूल में दूसरा स्थान लिया था। चंडीगढ़ और दिल्ली में छठी कक्षा में दो वर्ष खपाने पड़े, क्योंकि चंडीगढ़ में गुरमुखी (पंजाबी) सीखी-पढ़ी और दिल्ली के लिए संस्कृत चाहिए थी। लिहाजा, छठी में ही फिर से भर्ती होना पड़ा, इसके बाद जूनियर हाई स्कूल केमधार बाड़ा इडवालस्यूं में सातवीं कक्षा में प्रवेश लिया और स्कूल का सबसे मेधावी छात्र कहा जाने लगा। मेरा सामान्य ज्ञान और अंग्रेजी भाषा का ज्ञान स्कूल के अध्यापकों से अच्छा था। पूरे स्कूल का जनरल मॉनिटर भी मुझे बनाया गया और इस स्कूल का पहला छात्र था, जिसने दूसरी श्रेणी और संस्कृत में डिस्टिंक्शन के साथ आठवीं कक्षा पास की। मेरे से पहले स्कूल के विद्यार्थी तीसरी श्रेणी में ही पास होते थे। प्रेसिडेंट्स एस्टेट हायर सेकेंडरी स्कूल राष्ट्रपति भवन नयी दिल्ली से ग्यारहवीं बोर्ड अर्थात हायर सेकेंडरी परीक्षा 56 प्रतिशत अंकों से पास की, तब यह प्रतिशत ऑनर्स कोर्सों के लिए पर्याप्त होता था। इस स्कूल ने एक-दो बार मुझे वार्षिक वजीफा भी दिया।

भीष्म कुकरेतीः आपकी उच्च शिक्षा कहां हुयी?

सुरेश नौटियालः शिक्षा केवल शिक्षा होती है, प्राथमिक और उच्च कुछ नहीं होती। ज्ञान की जो कुछ बातें प्राइमरी और जूनियर हाई स्कूलों में मिल गयी थीं, वे स्नातकोत्तर स्तर पर भी नहीं मिलीं। खैर! वर्ष 1975 में हायर सेकेंडरी कॉमर्स स्ट्रीम से अच्छे अंकों से पास करने के फलस्वरूप उसी वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी कॉलेज (ईवनिंग) ने जबरन बीकॉम (आनर्स) में प्रवेश दिया। कॉमर्स में मन नहीं लगा और फेल हो गया, तब दिल्ली विश्वविद्यालय के ही दयाल सिंह कॉलेज (ईवनिंग) में 1976 में इंग्लिश (आनर्स) में प्रवेश लिया और 1979 में तीसरी श्रेणी में बीए (ऑनर्स) इंग्लिश परीक्षा पास कर दिल्ली विश्वविद्यालय की ईवनिंग स्नातकोत्तर कक्षा अर्थात एमए इंग्लिश में दाखिला लिया। इच्छा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ने की थी, पर तब वहां इंग्लिश में एमए नहीं था। बहरहाल आर्थिक कठिनाई, रहने के लिए ठिकाना न होने और आवश्यक पुस्तकें खरीदने के लिए पैसे न होने के कारण एमए फाइनल की सीढ़ी नहीं लांघ पाया। इसके बाद भारतीय विद्या भवन नयी दिल्ली से पत्रकारिता में एक वर्ष का पीजी डिप्लोमा और इंस्टिट्यूट ऑव कॉन्स्टीट्यूशनल एंड पार्लियामेंटरी स्टडीज नयी दिल्ली से फेलोशिप की। बाद में पांडिचेरी विश्वविद्यालय से मानवाधिकार अध्ययन में एमए और गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय हिसार से पत्रकारिता और जन संचार में एक और एमए किया। व्यक्तिगत स्तर पर फिल्मोलॉजी, थिएटर, पोएट्री, लोकतंत्र, नाटक-लेखन का कार्य पत्रकारिता के साथ चलता रहा। पठन-पाठन का कार्य अब भी जारी है।

भीष्म कुकरेतीः अब आपके व्यवसाय और आजीविका की ओर चलते हैं।

सुरेश नौटियालः जी! मेरी इच्छा तो फिल्ममेकर बनने या पूरी तरह से राजनीति में उतरने की थी, पर विवाह हो गया और विकल्प सीमित हो गए। पत्रकारिता में जाने के सिवाय कोई अन्य उपाय नहीं दिखाई दिया। वर्ष 1984 मई में विवाह के बाद नौकरी का बराबर दबाव आता रहा। कुछ माह बाद जॉर्ज फर्नांडिस के साप्ताहिकपत्र प्रतिपक्ष में पत्रकार मित्र गुरुकृपाल सिन्हा के कहने पर संपादक विनोद प्रसाद सिंह ने उप-संपादक और रिपोर्टर की नौकरी दी। मेरा मुख्य काम कला पर लिखना और डॉ. राममनोहर लोहिया के इंग्लिश लेखों का हिंदी में अनुवाद करना था। वेतन केवल पांच सौ रुपये मासिक था। चार-पांच माह में ही नौकरी छोड़ दी। इस बीच नारायणबगड़ चमोली के मित्र हरपाल नेगी ने दूरदर्शन के समाचार संपादक विश्वम्भर पुरोहित से परिचय कराया। दूरदर्शन हिंदी समाचार प्रभाग के प्रमुख ने मुझे कुछ अनुवाद करने को दिया, उसे पढ़ा और वहां कैजुअल संपादक रख लिया। कुछ समय के बाद, वरिष्ठ पत्रकार विश्वमोहन बडोला ने यूएनआई की हिंदी संवाद समिति यूनीवार्ता के ब्यूरो प्रमुख शरद द्विवेदी के पास भेजा। कुछ समय बाद परीक्षा हुई और कुल 45 अभ्यार्थी थे। मुझे नहीं लगा था कि परीक्षा पास करूंगा। एक दिन डोसा खाने यूएनआई की कैंटीन गया था तो पत्रकार राजीव पांडे मिले। उन्होंने बताया कि मैंने परीक्षा टॉप की है और तुरंत ज्वाइन करो। हिंदी और इंग्लिश भाषाओं का ठीकठाक ज्ञान होने का लाभ मुझे प्रतिपक्ष, दूरदर्शन समाचार और यूनीवार्ता तीनों जगह मिला। यूनीवार्ता के लिए कार्य करते हुए संसद के दोनों सदनों से रिपोर्टिंग करने का अवसर भी मिला। यूनीवार्ता से मैंने 1993 में त्यागपत्र दे दिया। तीन माह तक स्वीकार नहीं हुआ और वेतन भी मेरे बैंक खाते में आता रहा। यूनीवार्ता न्यूज एजेंसी मुझे छोड़ना नहीं चाहती थी, क्योंकि कम से कम तीन लोगों के बराबर मैं अकेले काम करता था। छह घंटे की शिफ्ट में 85 टेक्स अनुवाद करने का रिकॉर्ड आज भी यूनीवार्ता में कोई तोड़ नहीं पाया है। कई चक्कर लगाने के बाद अगले वर्ष 1994 में द आब्जर्वर ग्रुप के संपादक भवानंद उनियाल ने आब्जर्वर ऑव बिजनेस एंड पॉलिटिक्स दैनिकपत्र के फीचर्स विभाग में करेस्पॉन्डेंट की नौकरी दी। हर सप्ताह भिन्न विषयों पर फीचर्स लिखने होते थे और बिजनेस से लेकर फैशन तक की रिपोर्टिंग करनी होती थी। उसी दौरान हमने दिल्ली में उत्तराखंड  राज्य प्राप्ति का आंदोलन भी जंतर-मंतर चैक से शुरू कर दिया था। बहुत दबाव था, पर दोनों काम बखूबी करता रहा। मेरे काम को देखते हुए मुझे 13 इंक्रीमेंट्स एक साथ मिले। बाद में पॉलिटिकल ब्यूरो में सीनियर करेस्पोंडेंट और स्पेशल करेस्पोंडेंट रहते हुए विभिन्न राजनीतिक दलों के समाचार संकलित किये। अनेक राज्यों में चुनाव भी कवर किये। आब्जर्वर में मैंने पत्रकारों और अन्य कर्मचारियों की यूनियन भी बनाई। अंबानी समूह के किसी भी संस्थान में यूनियन बनाने वाला मैं पहला कर्मचारी था। यह साहस का काम था। वर्ष 2000 में आब्जर्वर का प्रकाशन बंद हो रहा था तो कर्मचारियों को मुआवजा भी दिलाया। इसके बाद द हिंदुस्तान टाइम्स के कार्यकारी संपादक भारत भूषण ने देहरादून ब्यूरो के लिए स्पेशल करेस्पोंडेंट के रूप में मेरा चयन कुछ परीक्षाओं के बाद किया। मैं उत्तराखंड आंदोलन और आब्जर्वर यूनियन में व्यस्त होने के कारण समय पर देहरादून में ज्वाइन नहीं कर पाया और यह अनुबंध इन कारणों और कुछ अन्य कारणों से हिंदुस्तान टाइम्स ने रद्द कर दिया। मेरा मानना है कि आब्जर्वर में यूनियन बनाने की वजह से इंग्लिश जर्नलिज्म में मैं ब्लैकलिस्टेड हो गया था और हिंदुस्तान टाइम्स ने इसीलिए मेरा अनुबंध रद्द किया था। इसके बाद कुछ महीने हिंदी के दैनिकपत्र अमर उजाला में ब्यूरो प्रमुख वीरेंद्र सेंगर ने स्पेशल करेस्पोंडेंट के रूप में ज्वाइन कराया, पर वेतन को लेकर सहमति नहीं बनने से छोड़ दिया। जिस दिन संसद पर हमला हुआ था, उस दिन समय से संसद पहुंचने वाले कम पत्रकारों में मैं भी था। उस दिन मेरी रिपोर्ट बाइलाइन के साथ अमर उजाला के समस्त संस्करणों में छपी थी।

अमर उजाला के बाद मैंने सिविल सोसाइटी सेक्टर की ओर रुख किया। वर्ष 2002 में समाजवादी एक्टिविस्ट विजय प्रताप की मदद से सेंटर फॉर द स्टडी ऑव डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) दिल्ली के एक प्रोग्राम साउथ एशियन डायलॉग्स ऑन एकोलॉजिकल डेमोक्रेसी (सैडेड) के समन्वयक के रूप में ज्वाइन किया। पर्यावरण, पारिस्थितिकी, लोकतंत्र और वंचित समाजों के बारे में अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियां आयोजित कीं, अनेक प्रकाशनों का संपादन किया। वहीं रहते हुए सिटीजन्स ग्लोबल प्लेटफार्म (सीजीपी) के इंडिया चैप्टर का समन्वयक भी रहा। अनेक अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियों का समन्वय किया और किताबों का संपादन किया, अनेक विदेश यात्राएं भी कीं। इसी बीच 22-23 वर्ष दूरदर्शन समाचार में और दस-बारह वर्ष आकाशवाणी हिंदी समाचार में अतिथि संपादक के रूप में कार्य किया। वर्ष 2005 में सैडेड और सीजीपी का कार्य छोड़ दिया। वर्ष 2006 में पत्रकार मित्र हर्ष डोभाल के सहयोग से ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क (एचआरएलएन) में कॉम्बैट लॉ हिंदी पत्रिका के कार्यकारी संपादक के रूप में ज्वाइन किया। बाद में कॉम्बैट लॉ इंग्लिश के एसोसिएट एडिटर का काम भी साथ-साथ किया और सीनियर डायरेक्टर (पुब्लिकेशन्स) की जिम्मेदारी भी संभाली। साथ-सत्तर से अधिक प्रकाशनों का एचआरएलएन में रहते हुए संपादन किया। वर्ष 2012 में यह संस्थान भी छोड़ दिया और इसी वर्ष अपूर्व जोशी का उत्तराखंड फाइटर्स ऑनलाइन एनसाइक्लोपीडिया ज्वाइन किया, जहां डेढ़ वर्ष सितम्बर 2013 तक रहा। इसके पश्चात कुछ वर्षों तक फ्रीलांसिंग करता रहा। जिस तर्ज पर 2009 में कुछ साथियों के साथ मिलकर उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी की स्थापना की थी, उसी तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर पर 2017-18 में इंडिया ग्रीन्स पार्टी की स्थापना भी की। पहले ही वर्ष 2016 में मैंने 23 वर्ष बाद यूएनआई समाचार एजेंसी फिर से ज्वाइन ज्वाइन कर ली थी। इस बार मैं पहले यूएनआई इंग्लिश में संपादकीय सलाहकार के रूप में मेन डेस्क का इंचार्ज रहा और फिर दो वर्ष बाद कंसल्टिंग एडिटर बनाया गया। मैं मेन डेस्क के इंचार्ज के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय समाचारों का इंचार्ज भी रहा। तीन वर्ष बाद  2019 में यूएनआई को छोड़ दिया, क्योंकि इंडिया ग्रीन्स पार्टी नामक जिस राजनीतिक दल का गठन 2017 में कर 2018 में औपचारिक रूप दिया था, उसे पूरा समय देना चाहता था। इसके बाद कोई औपचारिक नौकरी वाला काम नहीं किया।

भीष्म कुकरेतीः सबसे पहले रंगमंच से कैसे परिचय हुआ?

सुरेश नौटियालः रंगमंच कहें तो रामलीला देखने से यह यात्रा आरंभ होती है। पौड़ी नगर मेरे गांव के पास ही है, मात्र 10-11 किलोमीटर। ठीक से याद नहीं कि रामलीला सर्व प्रथम पौड़ी में देखी या बाड़ा गांव में। यह गांव लगभग तीन किलोमीटर नीचे होगा हमारे गांव से। पौड़ी में आज भी उसी स्थल पर प्रति वर्ष रामलीला होती है। हां! अब उसका मंच पहले से कहीं बेहतर बन गया है। पौड़ी के सब नागरिक  रामलीला के आयोजन में जुटते हैं, पर बचपन में कभी सोचा नहीं था कि रंगकर्म की ओर रुझान होगा। युवावस्था में यह जोश इतना बढ़ा कि 1981 में मात्र 24-25 वर्ष की आयु में द हाई हिलर्स ग्रुप की स्थापना की और अपना पहला नाटक लिखा। नाटक का निर्देशन भी किया। यह जूनून आज भी वैसा ही है।

भीष्म कुकरेतीः क्या अपने बादी-बदीण के स्वांग देखे हैं?

सुरेश नौटियालः जब मैं छोटा था, तब एक-दो बार बादी-बदीण की टोली हमारे गांव आयी थी। बादी दाढ़ी और पगड़ी में होता था और बदीण घाघरे में.अच्छा गाते और बजाते थे। एक छोटी सी लांग (रस्सी) भी लगायी थी, जिसपर ऊपर से नीचे उन्हीं में से एक व्यक्ति घिसट कर आया था। बादी-बदीण के बारे में बाद में अधिक पढ़ा। लोक-कला को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की तब न समझ थी और न किसी ने बताया। इसे पंडौं नृत्य की तरह लिया था और भूल भी गया था। अब तो बादी-बदीण की लोक-कला विलुप्त ही हो गयी है। उनकी नयी पीढ़ी की कोई रुचि नहीं है। जब तक किसी कार्य में व्यावसायिकता नहीं आएगी और वह रोजगार उत्पादन नहीं कर पायेगा और अंततरू मर जायेगा।

भीष्म कुकरेतीः कौन-कौन से नाटक शिक्षा लेते समय देखे?

सुरेश नौटियालः हिंदी साहित्य प्रिय विषय रहा पर इंग्लिश लिटरेचर का छात्र होने के नाते एस्किलस, सोफोक्लीस और यूरिपिडीस जैसे प्राचीन ग्रीक नाटककारों से लेकर शेक्सपियर (इंग्लिश रेनेसां) तक और उन्नीसवीं सदी के हेनरिक इब्सेन और समकालीन टेनेसी विलियम्स, आर्थर मिलर, बर्तोल्त ब्रेष्ट, सैमुएल बेकेट, एंतोन चेखव, निकोलाई गोगोल, अलेक्सांद्र ओस्त्रोवस्की, मिखाईल बुल्गाकॉफ इत्यादि तक के नाटक पढ़े और इनके अनेक नाटकों का मंचन दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान देखे भी। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) और एनएसडी रंगमंडल या रेपर्टरी की प्रस्तुतियां चेतन-अवचेतन को झकझोर कर देने वाली होती थीं। सप्रू हाउस में अनेक फूहड़ पंजाबी नाटक भी देखे। अस्सी के दशक में गढ़वाली और यदा-कदा कुमाऊंनी नाट्य प्रस्तुतियां देखने की आदत भी डाली।

भीष्म कुकरेतीः किस नाटककार ने सर्वाधिक प्रेरित किया?

सुरेश नौटियालः एक नहीं है। ऊपर जो पश्चिमी नाटककारों के नाम लिए हैं, वे सब मेरे पसंदीदा भी हैं और उन्होंने मुझे प्रभावित भी किया है। भिन्न-भिन्न जेनर में लिखने वाले नाटककार हैं ये, हर विधा विलक्षण है और प्रभावित करती है। देश के स्तर पर कालिदास, भाष, क्षमेश्वर, हस्तिमल्ल, भवभूति, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, रबीन्द्रनाथ टैगोर, जयशंकर प्रसाद, विजय तेंदुलकर, मोहन राकेश, महेश एलकुंचवार, गिरीश कर्नाड, हबीब तनवीर, महाश्वेतादेवी, और बादल सरकार जैसे अनेक नाटककार हुए हैं, जिन्होंने किसी न किसी स्तर परैत प्रभावित किया है। गढ़वाली में भवानीदत्त थपलियाल, ललित मोहन थपल्याल, राजेंद्र धस्माना, गोविंदबल्लभ पंत, बृजेन्द्रलाल शाह, दयानन्द अनंत, पारेश्वर गौड़ और दिनेश बिजल्वाण विशेषकर प्रभावित करते हैं।

भीष्म कुकरेतीः अब तक आपने कितने नाटक लिखे हैं? पहला नाटक कौन सा है और किन-किन नाटकों का मंचन हुआ है?

सुरेश नौटियालः गढ़वाली, हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं में मैंने अब तक 19 नाटक लिखे हैं। इंग्लिश लिटरेचर का विद्यार्थी होने के नाते पश्चिमी साहित्य से प्रभावित होना स्वाभाविक था। अस्तु, मैंने सर्वप्रथम अंग्रेजी नाटक द अदर शांग्री-ला 1980 में लिखा। यह एक मर्डर मिस्ट्री है। वर्ष 2022 में मैंने इसे दोबारा लिखा। 1981 में द हाई हिलर्स के लिए पहला हिंदी नाटक एक और आयाम लिखा, जिसका मंचन 1983 में दिल्ली में किया गया। हेनरिएटा माइ डार्लिंग तीसरा नाटक अंग्रेजी में है, इसे 1981 में शुरू किया और कम समय में ही पूरा कर दिया, पर बाद में इसे 2013-14 में संशोधित किया तथा 2024 में डार्लिंग हरिता के नाम से हिंदी में भी लिखा। शेष नाटक बांकेलाल सत्याग्रही (हिंदी, 1991-92), बावन पत्ते (हिंदी, 1992), गार्डन तालकटोरा (हिंदी, 1994-2015), लोकभूमि (हिंदी, 2012), लाटरी झुनझुनवाला की (हिंदी, 2012), सागर व्यथा (हिंदी, 2013-15), द कॉस्मो आर्च (इंग्लिश, 2014-23), चखुली प्रधान (गढ़वाली, 2015, द हाई हिलर्स ग्रुप द्वारा 2015 में ही मंचित), एक स्त्री नाम बहुमुखी (हिंदी, 2015, संशोधित, 2023), पांच स्त्रियां (हिंदी, 2016), अपणु-अपणु सर्ग (गढ़वाली, 2023. सह नाटककार दिनेश बिजल्वाण), मीटिंग-वीटिंग (हिंदी, 2023), कठपुतलियां (हिंदी, 2024), म्यरु गौं म्यरि धरति (गढ़वाली, 2024), जंगल में बाघ नाचा (गढ़वाली और हिंदी, 2023, मंचन 2023 और 2024) और ना ना बाबा प्लास्टिक ना (हिंदी, 2024) थे। इस प्रकार मैंने अब तक केवल चार गढ़वाली नाटक लिखे हैं। मेरे लिखे अब तक एक हिंदी और तीन गढ़वाली नाटकों का मंचन हुआ है, जिनमें चखुली प्रधान और अपणु-अपणु सर्ग चर्चित नाटक रहे हैं। जंगल में बाघ नाचा बच्चों में बहुत लोकप्रिय रहा। वस्तुतः पोएट्री के बाद मेरे लिए नाटक सबसे अधिक रोमांचकारी साहित्य है। कई लोग नाटक को साहित्य नहीं मानते। यदि ऐसा है तब नाटक विधा साहित्य के छात्रों को ही क्यों पढ़ाई जाती है? अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई के दौरान सबसे आसान मुझे नाटकों का परचा ही लगता था और आज नाटकों की दुनिया में डूबा हूं।

भीष्म कुकरेतीः आपके किन किन नाटकों का यूट्यूबीकरण हो गया है?

सुरेश नौटियालः मेरे किसी भी नाटक का यूट्यूबीकरण नहीं हुआ है। संभव है कि जिन नाट्य मंडलियों ने मेरे नाटकों का मंचन किया है, उन्होंने किसी न किसी स्तर पर इनके कुछ अंश यूट्यूब में डाले हों।

भीष्म कुकरेतीः आपके नाटक किस-किस श्रेणी श्रेणी में आते हैं?

सुरेश नौटियालः मेरे नाटक विभिन्न श्रेणियों में आते हैं। द अदर शांग्री-ला एक मर्डर मिस्ट्री है और समाज के जटिल ताने-बाने पर निरपेक्ष टिप्पणी है। एक और आयाम उत्तराखंड से पलायन और उसके कारण समाज में बढ़ती जटिलताओं का अध्ययन है। हेनरिएटा माइ डार्लिंग (हिंदी में डार्लिंग हरिता) एकांत में रहने वाली एक अपंग सभ्रांत लड़की के जीवन पर केंद्रित है और कथा उसके एकांत को विभिन्न कोणों से देखती है। बांकेलाल सत्याग्रही एक राजनीतिक परिहास है, जो समाज में बिखरी राजनीति को एक परिवार के भीतर लाकर इसका सूक्ष अध्ययन करता है। बावन पत्ते दिल्ली में रहने वाले उत्तराखंडियों पर व्यंग्य और कटाक्ष है, इसमें पात्र अपने समाज से ही लिए गए हैं। गार्डन तालकटोरा एक पार्क में आने वाले प्रेमी जोड़ों को उनकी पृष्ठभूमि के अनुसार परिभाषित करता है और अंत में एक त्रासदी के रूप में इसका समापन होता है। लोकभूमि उत्तराखंड की राजनीति पर आधारित नाटक है। लाटरी झुनझुनवाला की एक स्वप्नजीवी पत्रकार के सपनों की उड़ान का चित्रण हास्य को रूप में करता है। सागर व्यथा एक ऐसे सफल उत्तराखंडी की कथा है, जो कभी भी अपने गांव नहीं लौट पाता है और यही उसकी व्यथा है। अंग्रेजी नाटक द कॉस्मो आर्च एनक्रोनिज्म पर आधारित है और विभिन्न कालखंडों के पात्रों को एक मंच पर लाकर उनके कम्युनिकेशन गैप्स पर टिप्पणी करता है। चखुली प्रधान उत्तराखंड में व्याप्त प्रधान पति की अनौपचारिक कुव्यवस्था पर टिप्पणी है। पत्नी जब प्रधान बनती है तो अपने पति को प्रधान पति स्वीकार करने के बजाय पूरी व्यवस्था अपने हाथ में ले लेती है। इस प्रकार नाटक महिला सशक्तिकरण भी दिखाता है। एक स्त्री नाम बहुमुखी एक ऐसी स्त्री की कथा है, जो परिवार और समाज से विद्रोह कर अपनी धारणाएं स्थापित करने का प्रयास करती है और उसकी अपनी मां ही इसमें सबसे बड़ी बाधा है। पांच स्त्रियां नाटक एक ही उत्तराखंडी गांव की पांच स्त्रियों की कथा है, जो अलग-अलग आयु-वर्ग से हैं और दुनिया को देखने की उनकी दृष्टि भी भिन्न है। दिनेश बिजल्वाण के साथ मिलकर लिखा अपणु-अपणु सर्ग गढ़वाली नाटक भी पलायन की पीड़ा पर आधारित है। मीटिंग-वीटिंग ऐसा नाटक है, जो दिल्ली में रहने वाले उत्तराखंडियों के खोखले आदर्शों और चिंतन को झिंझोड़ता है। कठपुतलियां नाटक अमेचर थिएटर की कठिनाइयों के बारे में है। म्यरु गौं म्यरि धरति गढ़वाली नाटक पर्यावरण और संसाधनों पर ग्रामीणों के अधिकार के बारे में है। जंगल में बाघ नाचा गढ़वाली और हिंदी नाटक जानवर-जन-जंगल और कॉर्पोरेट सेक्टर के आपसी द्वंद्व की कथा है, जिसमें प्रतीकात्मक रूप में जानवरों और लोगों की एकता दिखाई गयी है, जो कॉर्पोरेट पर जीत हासिल करती है और ना ना बाबा प्लास्टिक ना प्लास्टिक के विरुद्ध पर्यावरण पर केंद्रित नाटक है।

भीष्म कुकरेतीः नाटक लिखने से पहले विषय मन में कैसे आते हैं? कितना समय लग जाता है नाटक बुनने में? और कितने दिन में नाटक पूरा हो जाता है?

सुरेश नौटियालः कुछ भी निश्चित नहीं है। कभी कोई घटना विशेष नाटक लिखने का रास्ता खोल देती है तो कभी किसी विषय को पकने में वर्षों लग जाते हैं और कभी लिखने में ही कई-कई साल. अभी भी मन में नाटक के कुछ प्लॉट्स अपना जाल बुन रहे हैं, पर कैसे और कहां शुरू करूं, यह पता नहीं है। अनेक बार शुरुआत तो हो जाती है, पर पता नहीं होता कि नाटक का अंत कैसा होगा। उदाहरण के लिए अंग्रेजी नाटक द कॉस्मो आर्च लिखने में नौ साल से अधिक समय लगा, इसमें विभिन्न कालखंडों के दार्शनिक, राजनेता और पर्यावरणविद पात्र हैं। किसी विषय के बारे में उनकी क्या सोच थी यह जानने के लिए खूब शोध करना पड़ा, इसीलिए इसे लिखने में नौ वर्ष से अधिक का समय लगा। दूसरी ओर कुछ नाटक कुछ महीनों और एक-दो नाटक कुछ दिन में ही लिख लिए थे। नाटक कोई भी हो, समाज के ताने-बाने में उसका विषय परखना आवश्यक होता है। समाज की अपेक्षाओं का ध्यान भी रखना होता है और सबसे बढ़कर, समाज को नयी दिशा देने का संदेश नाटक में होना चाहिए।

भीष्म कुकरेतीः चरित्र चित्रण हेतु क्या तकनीक अपनाते हो?

सुरेश नौटियालः कुछ विशेष नहीं। जिस भाषा में नाटक की परिकल्पना की जाती है, उस भाषा के समाज के विभिन्न चरित्र आस-पास ही मिल जाते हैं। कभी-कभी कुछ कलाकार पहले मन में होते हैं और फिर उनके चरित्र के अनुसार पात्र गढ़े जाते हैं। हां! ऐतिहासिक नाटकों में परिकल्पना उस काल के चरित्रों और पात्रों के अनुसार करनी होती है, ताकि नाटक रिएलिस्टिक लगे. मंच पर जीवन का सही चित्रण ही नाटक है।

भीष्म कुकरेतीः अपने नाटकों में संवादों के बारे में स्वयं की कोई राय?

सुरेश नौटियालः संवाद पात्र की पात्रता के अनुकूल होने चाहिए। पात्रों की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, भाषाई और शैक्षिक पृष्ठभूमियों के अनुसार उनके संवाद होने चाहिए। हा! देश-काल-वातावरण का भी ध्यान आवश्यक है। ये सब नहीं होगा तो पात्र काल्पनिक और अतिरंजना से भरपूर दिखाई देंगे।

भीष्म कुकरेतीः उद्देश्य को कैसे दर्शकों के सामने लाते हैं आप?

सुरेश नौटियालः किसी भी कविता, कथा, उपन्यास या नाटक का कोई न कोई लक्ष्य-उद्देश्य होता है। इसके बिना लिखने का कोई अर्थ नहीं होता। नाटक में सर्वप्रथम विषयवस्तु रखी जाती है, फिर गुण-दोषों की विवेचना की जाती है और अंत में उद्देश्य प्रस्तुत किया जाता है। असल में नाटक में हम जीवन को ही दिखाते हैं और यदि नाटक यथार्थवादी न होकर कल्पनावादी हो तब भी उसका लक्ष्य वही होता है, जो यथार्थवादी नाटक का। कलाओं का लक्ष्य सदैव बेहतर समाज बनाने का होता है। नाटककार अपने विचारों, भावों आदि का प्रतिपादन पात्रों के माध्यम से ही करता है, इसलिए नाटक में पात्रों का विशेष स्थान होता है। प्रमुख पात्र अथवा नायक और नायिका समाज को उचित दिशा और दशा तक ले जाने वाले होते हैं, पर एक बात महत्वपूर्ण है कि नाटककार को उन्हीं पात्रों की रचना करनी चाहिए जो घटनाओं को गतिशील बनाने और सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति करने में सक्षम हों और हां! पात्रों का सजीव और प्रभावशाली चरित्र ही नाटक का प्राण होता है। समाज के हृदय में रस का संचार करना भी नाटक का उद्देश्य होता है।

भीष्म कुकरेतीः अपने नाटकों में वार्तालाप के कुछ उदाहरण?

सुरेश नौटियालः अपने गढ़वाली नाटक चखुलि प्रधान से एक उदाहरण प्रस्तुत है। यह नाटक उत्तराखंड की समस्याओं को एक महिला ग्राम प्रधान की दृष्टि से देखता है।

भीष्म कुकरेतीः भाषा कौन सी प्रयोग करते हैं आप? इतर भाषाओं उर्दू, अंग्रेजी या हिंदी का प्रयोग किस तरह से होता है?

सुरेश नौटियालः जैसे कि पहले भी कहा, भाषा तो पात्र की पृष्ठभूमि के अनुसार होती है। नाटक में कहीं-कहीं उर्दू, हिंदी या अंग्रेजी का प्रयोग अपरिहार्य होता है। पात्रानुसार ही की जाती है, अन्यथा नहीं।

भीष्म कुकरेतीः दर्शक भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के होते हैं तो भाषायी कठिनाई को सुलझाने के लिए क्या करना होता है?

सुरेश नौटियालः यह प्रश्न हिंदी-अंग्रेजी नाटकों से अधिक गढ़वाली नाटकों पर लागू होता है। गढ़वाली नाटकों में हम श्रीनगरिया गढ़वाली लिखते हैं। हां! कलाकार अन्य इलाकों के होने से एक्सेंट श्रीनगरिया नहीं आ पाता है। कई बार तो नाटक में एक ही गांव के लोग अनेक एक्सेंट में गढ़वाली बोल रहे होते हैं। बहुएं तो अलग-अलग क्षेत्रों से आती हैं तो चल जाता है, पर गांव के पुरुषों को तो एक ही एक्सेंट में बोलना चाहिए। वैसे द हाई हिलर्स ग्रुप में कुसुम बिष्ट, संयोगिता ध्यानी, गिरीश बिष्ट, सविता पंत, कुसुम चैहान, बृजमोहन वेदवाल, वीरेन्द्र सिंह गुसाईं, धर्मवीर रावत जैसे अनेक बढ़िया एक्टर्स हैं, जिनका गढ़वाली उच्चारण स्पष्ट है। जहां तक दर्शकों की बात है, उन्हें समझने में कोई कठिनाई नहीं होती। मुझे तो बांग्ला, मराठी, पंजाबी जैसे नाटक भी समझ आ जाते हैं, चूंकि नाटक की अपनी भाषा भी होती है।

भीष्म कुकरेतीः मंचन हेतु क्या क्या कार्य करने होते हैं? 

सुरेश नौटियालः नाटक का मंचन करना नाट्य मंडली, नाटक निर्देशक, फ्लोर मैनेजर और प्रकाश संयोजक का काम हैं। नाटककार को इसमें कुछ करना नहीं होता है। नाटक तो नाटककार की अनुपस्थिति में अधिक होते हैं। हां! नाटककार उपलब्ध हो तो निर्देशक उसके सुझावों पर भी विचार कर सकता है। नाटक का मंचीकरण नितांत निर्देशक के डोमेन में होता है। नाटककार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

भीष्म कुकरेतीः नाट्य निर्देशक का चयन कैसे किया जाता है?

सुरेश नौटियालः जब कोई नाट्य मंडली या संस्था किसी नाटक को मंचित करने का निर्णय लेती है, तब उसे वित्तीय व्यवस्थाओं के अतिरिक्त यह भी विचार करना होता है कि अमुक नाटक का बेहतर निर्देशन कौन सा नाट्य निर्देशक कर सकता है। यह चयन अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। नाटक की रीडिंग करते समय निर्देशक से विचार-विनिमय किया जा सकता है कि नाटक को किस रूप में व्याख्यायित किया जाना चाहिए। अंततः, नाटक का ट्रीटमेंट निर्देशक पर निर्भर करता है और वह उसी का बच्चा होता है।

भीष्म कुकरेतीः गढ़वाली नाटक प्रकाशन की क्या-क्या समस्याएं हैं?

सुरेश नौटियालः गढ़वाली नाट्य प्रकाशन की कोई परंपरा नहीं है. नाटककार या किसी अन्य को नाटक प्रकाशन की पहल करनी होती है। नाटकों को खरीदकर पढ़ने वाले भी नगण्य हैं। आज तक मैंने नाटकों का कोई  संकलन नहीं देखा है, जिसमें विभिन्न गढ़वाली नाटककारों के नाटक संकलित हों। मैंने स्वयं एक बार प्रयास किया था कि भवानीदत्त थपलियाल, ललित मोहन थपल्याल, राजेंद्र धस्माना, पारेश्वर गौड़, दिनेश बिजल्वाण और मेरे नाटक एक ही संकलन में संकलित हो जाएं, पर अर्थाभाव में ऐसा हो न सका। संक्षेप में प्रयास जारी रहने चाहिए और प्रकाशकों को यह काम करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।

भीष्म कुकरेतीः गढ़वाली नाटकों के मंचन की समस्याएं क्या हैं और समाधान क्या हैं?

सुरेश नौटियालः गढ़वाली नाटकों के मंचन की समस्याएं अनेक हैं. सबसे पहले, अच्छे नाटक कम लिखे जा रहे हैं। दूसरे नाट्य मंडलियों के पास आर्थिंक संसाधनों की कमी सदैव रहती है। हां! दिल्ली जैसे महानगरों में दिल्ली सरकार की गढ़वाली कुमाऊंनी एवं जौनसारी भाषा अकादेमी शुरू होने से वहां नाट्य मंडलियों को कुछ राहत मिली है, पर ऐसा सब जगह नहीं है। उत्तराखंड सरकार तक ने ऐसी कोई अकादेमी अब तक नहीं बनाई है। तीसरे दक्ष मंचीय कलाकारों की कमी है। चैथे गढ़वाली सही ढंग से और सही उच्चारण से बोलने वाले कलाकारों का अकाल है। पांचवें टिकट खरीदकर नाटक देखने वाले उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। छठे समाज में नाटकों को बढ़ावा देने की कोई इच्छाशक्ति नहीं है।

भीष्म कुकरेतीः अपने नाटकों के बारे में में क्या कहेंगे?

सुरेश नौटियालः मेरे नाटक थोड़ा जटिल होते हैं, कोई करना नहीं चाहता। द हाई हिलर्स ग्रुप तो अपना ग्रुप है, पर अन्य ग्रुप्स अपेक्षा करते हैं कि नाटकों के मंचन के बदले में नाटककार पैसे दे। मेरे लिए संभव नहीं यह सब। आने वाली पीढ़ियां ही मेरे नाटकों को स्थान देंगी या नहीं देंगी। वर्तमान पीढ़ी ने तो कुछ किया नहीं। जब नाटकों का मंचन ही नहीं हो पायेगा, तब लोग राय बनाएंगे कैसे? समय मेरे नाटकों का स्थान तय करेगा। अभी कुछ नहीं कह सकता।

भीष्म कुकरेतीः अपने को गढ़वाली नाट्य संसार में कहाँ रखना चाहोगे?

सुरेश नौटियालः पता नहीं, पर जो नाटककार हमारे आस-पास हैं और हुए हैं, उन्हीं के साथ अपने होने की कल्पना करता हूं। पूरी दुनिया में त्रासद नाटक अधिक कालजयी माने जाते हैं। मैंने अभी ऐसे दो ही नाटक लिखे हैं।

भीष्म कुकरेतीः गढ़वाली नाट्य संसार में आपको कैसे याद किया जाएगा?

सुरेश नौटियालः यह तो आप जैसे नाट्य मनीषी ही बता पाएंगे, अपने बारे में क्या कहूं?

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