शि.वा.ब्यूरो, आगरा। अप्साध्यक्ष डॉ. सुशील गुप्ता ने बताया कि हाल ही में काशीपुर में हुई उस घटना ने हमारे दिलों को झकझोर दिया है, जिसमें एक छात्र ने अपने घर से तमंचा लाकर शिक्षक पर गोली चला दी, जिससे न केवल शिक्षक की जान जोखिम में पड़ी, बल्कि पूरे विद्यालय का माहौल भी खराब हो गया। उन्होंने कहा कि इससे पहले अहमदाबाद में भी ऐसी ही एक घटना हुई थी, जिसने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर क्या हो गया है आज के छात्रों की मानसिकता को?
अप्साध्यक्ष का कहना है कि शिक्षक और छात्र का रिश्ता सदियों से एक पवित्र बंधन माना जाता है। शिक्षक छात्रों को ज्ञान, संस्कार और जीवन के मूल्यों की शिक्षा देते हैं परंतु आज के समय में यह रिश्ता टूटता हुआ प्रतीत हो रहा है। उन्होंने कहा कि छात्रों में बढ़ती आक्रामकता और हिंसक प्रवृत्ति ने हमें चिंतित कर दिया है।
अप्साध्यक्ष डॉ. सुशील गुप्ता का मानना है कि बच्चों में हिंसा और आक्रामकता बढ़ने के कई कारण हो सकते हैं, जिनमें मीडिया का प्रभाव प्रमुख है, जिसके तहत टीवी, फिल्में, वीडियो गेम्स और सोशल मीडिया पर हिंसक सामग्री का प्रदर्शन बच्चों को हिंसा के प्रति संवेदनशील बना सकता है। इसके साथ ही पारिवारिक माहौल भी इसके लिए उत्तरदायी है। समाज में निरंतर बढते जा रहे दिखावे के चलते दिन-रात अधिक धनार्जन में लगे माता-पिता के पास बच्चों को देने के लिए समय ही नहीं है। नौकरी एवं जीविकोपार्जन के लिए संयुक्त परिवार से दूर होकर एकल परिवार में पल रहे बच्चों को शिक्षाप्रद कहानियाँ के माध्यम से संस्कारों को रोपने वाले दादा -दादी, नाना-नानी केवल पर्व त्यौहार पर ही मिल पाते हैं। उन्होंने कहा कि आज अधिकांश परिवारों में एक या दो ही बच्चे होते हैं। उन्होंने कहा कि माता-पिता की सारी दुनिया उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है, इस कारण वे बच्चों को गलतियों को नजरंदाज कर देते हैं। इस कारण बच्चों को सही -गलत का अंतर ही समझ नहीं आता। उन्होंने कहा कि समय न दे पाने के अपने अपराध बोध को कम करने के लिए वे बच्चों की हर जायज- नाजायज माँग को पूरा करने लगे हैं, जिससे बच्चों को न सुनने की आदत ही नहीं है और जब कभी ऐसा होता है कि उनको किसी बात के लिए न कहा जाए तो वे आक्रामक हो जाते हैं। डॉ. सुशील गुप्ता घरेलू हिंसा, पारिवारिक कलह और माता-पिता के बीच के तनाव का असर बच्चों पर पड़ रहा है।
अप्साध्यक्ष डॉ. सुशील गुप्ता का मानना है कि शिक्षा प्रणाली में प्रतिस्पर्धा और दबाव के कारण बच्चे तनावग्रस्त हो रहे हैं। सामाजिक दबाव बच्चों को हिंसक व्यवहार करने के लिए प्रेरित कर सकता है। उनका मानना है कि बच्चों के भीतर बढ़ता अकेलापन उनके मानसिक असंतुलन का मुख्य कारण बन रहा है। जब वे अपनी भावनाएँ साझा नहीं कर पाते, तो वे अवसाद या आक्रोश के रूप में बाहर आती हैं। इसके साथ ही अभिभावकों की व्यस्तता के चलते भावनात्मक सुरक्षा की कमी आती है। माता-पिता धन कमाने की दौड़ में इतने व्यस्त हैं कि वे बच्चों को समय नहीं दे पाते। ऐसे में बच्चे भौतिक सुख तो पा लेते हैं, पर मानसिक सहारा नहीं। इसी भावनात्मक सुरक्षा की कमी के चलते बच्चे आक्रामकता का प्रदर्शन कर रहे हैं। अनुशासन की कमी और बच्चों में सही और गलत के बीच का अंतर न समझने की प्रवृत्ति भी उन्हें हिंसक बना रही है।
अप्साध्यक्ष डॉ. सुशील गुप्ता ने बताया कि इन कारणों को समझने और उन पर काम करने से ही हम बच्चों के व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं। उनका मानना है कि हमें वर्तमान में छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों की सुरक्षा और अनुशासन के प्रति और भी सतर्क रहने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि विद्यालयों में एक सुरक्षित और स्वस्थ वातावरण प्रदान किया जाए, छात्रों और शिक्षकों के बीच संवाद को बढ़ावा दिया जाए तथा छात्रों में नैतिक मूल्यों का संवर्धन किया जाए, तभी दोनों अपने कर्तव्यों का पालन उचित रूप से कर सकते हैं और एक बेहतर भविष्य की कल्पना की जा सकती है। डॉ. सुशील गुप्ता का मानना है कि ऐसी परिस्थितियों से बाहर आने के लिए आवश्यक है कि माता-पिता केवल बच्चों के लिए पैसा कमाने में ही न लगे रहें, थोड़ा समय भी उनके साथ बिताएँ, जिससे बच्चे को यह अहसास होता रहे कि मेरे माता-पिता हमेशा मेरे साथ हैं। उनका कहना है कि उससे उसकी दिनचर्या एवं मित्रों के विषय में नियमित रूप से बात करते रहें, जिससे किसी समस्या के आने पर वह खुद को अकेला महसूस न करे, अवसाद में न आए, आपके पास न होने पर किसी और से अपनी समस्या का समाधान न पाए, जो शायद उसके आक्रोश और अवसाद का कारण बन सकता है। बच्चों में सहयोग, सकारात्मक सोच और हार-जीत को समान रूप से अपनाने की आदत को विकसित करें।
अप्साध्यक्ष डॉ. सुशील गुप्ता ने कहा कि आज के समय में बच्चों में बढ़ रहे आक्रोश एवं अवसाद की गंभीर समस्या न केवल एक सामाजिक चिंता का विषय है, बल्कि माता-पिता, शिक्षकों और पूरे समाज के लिए आत्ममंथन का अवसर भी है। उन्होंने कहा कि बच्चों में बढ़ते अवसाद और आक्रोश की यह समस्या कोई एक दिन में उत्पन्न नहीं हुई है, न ही इसका समाधान एक दिन में संभव है। यह एक सतत प्रक्रिया है, जिसमें माता-पिता, शिक्षक, समाज और शासन सभी की भूमिका महत्वपूर्ण है। डॉ. सुशील गुप्ता का मानना है कि बच्चों को केवल अच्छे स्कूल, महंगे गैजेट्स और सुविधा देना पर्याप्त नहीं, उन्हें संवेदनशील, समझदार और सहनशील बनाना भी जरूरी है। उन्होंने कहा कि इसके लिए जरूरी है कि हम उनके मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और भावनात्मक विकास की जिम्मेदारी भी उतनी ही गंभीरता से लें, जितनी उनकी पढ़ाई और कैरियर की।