डॉ.शैलेश शुक्ला, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
सरकारी दफ्तरों की दीवारें केवल ईंट-पत्थर से नहीं, बल्कि चालाकी, चापलूसी और कमीशन की मोटी परतों से बनी होती हैं। और अगर दफ्तर में सिविल विभाग हो, तो समझिए भ्रष्टाचार का महल पहले ही तैयार हो चुका है—बस उसमें घुसने के लिए “पद” की चाबी चाहिए। कहते हैं, सिविल इंजीनियरिंग ईंट, बालू और सीमेंट से बनती है, लेकिन सिविल विभाग का प्रमुख बनने के बाद समझ में आता है कि असली निर्माण तो रिश्वत, रेवड़ी और रसूख से होता है। मैं जब दफ्तर में फटी जेब वाली पैंट पहनकर वॉटर कूलर के नीचे बैठा करता था, तब सोचता था—काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता!
ईंट से ईंट नहीं, रिश्वत से रिश्वत जोड़ना : सिविल विभाग का प्रमुख होना मतलब एक ऐसा कलाकार होना, जो सरकार के बजट को बगैर ब्रश छुए अपने ही रंग में रंग दे। जिस जगह 50 हज़ार में टाइल लग सकती है, वहाँ 5 लाख का टेंडर पास कराना, कोई साधारण कला नहीं है—यह तो ‘सिविलीय चातुर्य’ की पराकाष्ठा है। क्या मजाल कि बिल्डिंग की दीवार खड़ी हो और उसकी पुताई में ‘हेड साहब’ की जेब रंगीन न हो! और अगर रंग गुलाबी है, तो समझिए कि उसमें ठेकेदारों की गुलाबी नोटों की परत छिपी है।
हर टेंडर, हर रिपेयर, हर मरम्मत में ऐसा “क्लासिक एडजस्टमेंट” होता है कि सरकारी सीमेंट से निजी बाथरूम भी बन जाते हैं। और जब कोई पूछता है—"सर, ये बिल में इतना खर्च कैसे दिखा?", तो उत्तर आता है—"कंस्ट्रक्शन क्वालिटी प्रायोरिटी है।" यदि मुझे भी ऐसी क्वालिटी दिखाने का मौका मिलता, तो शायद मेरी खाट तो टूटी होती, पर घर में तीन मंजिलें बन चुकी होतीं। हाय रे किस्मत! काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता।
निरीक्षण का नाम सुनते ही 'अतिथि देवो भव' अभियान : जैसे ही मुख्यालय से कोई ‘निरीक्षण दल’ आता है, वैसे ही सिविल विभाग के प्रमुख की आत्मा ‘होटल मैनेजर’ में बदल जाती है। निरीक्षक अधिकारी का स्वागत केवल माला से नहीं होता, वहाँ तो बोतलों की मालाएं होती हैं। एक पूरा ‘हॉस्पिटैलिटी प्लान’ बनता है—शराब, शबाब, शेरवानी और शोभा— ऑल इन्क्लूसिव पैकेज! अधिकारी का मूड सेट करना मतलब जांच रिपोर्ट को 'फूलों' से भर देना। अगर कोई ईमानदार निरीक्षक गलती से फाइल खोलने की कोशिश करता है, तो तुरंत एक सुशील बालिका को चाय लेकर भेजा जाता है, जो कहती है—“सर, चाय पीजिए, दस्तावेज़ बाद में देख लीजिए।”
और यदि निरीक्षक साहब ने दो घूंट ज़्यादा पी लिए, तो पीछे से स्टाफ वीडियो बना लेता है—“साक्ष्य संग्रहण” के नाम पर। फिर क्या? अगली बार वही वीडियो दिखाकर कहा जाता है—“सर, आप हमारे पुराने अतिथि हैं, मित्रवत रिश्ता बनाए रखें।” ऐसा प्रेम, ऐसा आदर, ऐसा “कंट्रोल” पाने की कला यदि मुझे मिलती, तो मैं भी मुख्यालय के सबसे कठोर अधिकारी को “डियर दोस्त” बना देता। दिल कहता है—काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता।
उपहार देने की नीति और 'बच निकलने' की रणनीति : बजट की रकम में खेल और खेल में बचाव, दोनों में माहिर सिविल हेड साहब, हर त्यौहार पर ‘वेलफेयर डिपार्टमेंट’ बन जाते हैं। दीपावली आते ही विभागीय बजट से उपहार खरीदे जाते हैं—पर वितरण ‘अधिकारियों’ के दरवाजे तक होता है। कोई पूछे कि "इतने महंगे गिफ्ट्स किस मद में दिए गए?" तो जवाब तैयार—"इम्प्लॉई मोटिवेशन।" गिफ्ट्स में घड़ियां, गहने, महंगे मोबाइल और अगर वीआईपी हो तो, विदेशी शराब भी।
यह सब होता है विभागीय 'गुडविल' के नाम पर और जो अधिकारी ईमानदारी की बात करता है, उसके घर 'सिविल' का नल कभी ठीक नहीं होता। बच निकलने की कला तो इतनी सधी हुई होती है कि CAG ऑडिट के वक्त भी फाइलों में वो ही खर्च दिखता है जो 'सत्य' के करीब हो—बाकी सारा माल नकद या गुप्त खातों में होता है। अगर मुझे भी ऐसी 'फाइनेंशियल एक्रोबेटिक्स' आती, तो शायद मैं भी हर त्यौहार पर 'उपहार वितरण' का बहाना बनाकर अपनी 'लॉबी' मजबूत करता। सोचते-सोचते दिल से आह निकलती है—काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता।
ठेकेदारों की बोली और ‘सौदेबाज़ी की सभ्यता’ : सरकारी भवन बनाना और गिराना दोनों ही ठेकेदारों के भरोसे होता है, लेकिन ठेके मिलते नहीं, दिलाए जाते हैं। जिस ठेकेदार के पास बोली से ज्यादा ‘बोली लगाने’ की प्रतिभा हो, वही साहब का प्रिय बनता है। टेंडर की प्रक्रिया ऐसी होती है कि कभी भी सबसे अच्छा प्रस्ताव नहीं, बल्कि सबसे ज़्यादा 'सेवा भाव' दिखाने वाला विजेता बनता है। और सेवा भाव का पैमाना क्या है? बॉक्स में रखी नोटों की गिनती और बैग की चमक।
कई बार टेंडर के कागज़ तो फॉर्मेलिटी के लिए होते हैं, असली निर्णय तो चाय की टेबल पर, महंगे होटल के कमरे में होता है, जहाँ ‘शाम की बैठक’ के बाद ठेके का भविष्य तय होता है। यदि मैं भी उस टेबल पर होता, जहाँ ठेकेदार खुद आकर कहता, “सर, आप जैसा मार्गदर्शक मिले तो हमें कुछ देना भी अच्छा लगता है”, तो शायद मैं भी ‘मार्गदर्शन’ को आय का स्रोत बना लेता। हे भगवान! इतनी ‘सौम्य लूट’ करने का अवसर अगर मेरी किस्मत में होता, तो मैं भी विभागीय नीतियों को 'नीतिगत लाभ' में बदल देता। सोचता हूँ, काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता।
संविदा कर्मी या निजी नौकर? सरकारी कार्यालय का ‘घर-घर की कहानी’ : सिविल विभाग में संविदा पर रखे गए कर्मचारी अक्सर वो ‘अदृश्य योद्धा’ होते हैं, जिनका काम सरकारी भवन से लेकर साहब के जूते तक चमकाने का होता है। टेंडर से लेकर टॉयलेट तक उनका योगदान अनमोल होता है, परन्तु पेमेंट के नाम पर सिर्फ टालमटोल। साहब लोग उन्हें चाय बनाने, बच्चों को स्कूल छोड़ने, मेमसाब को शॉपिंग मॉल ले जाने, कुत्ते को घुमाने और त्योहारों में झाड़ू-पोंछे के लिए प्रयोग करते हैं। अगर किसी संविदा कर्मचारी को दफ्तर के बजट से खरीदे गए झाड़ू से साहब के ड्राइंग रूम की सफाई करने का अवसर मिले, तो वह ‘सरकारी सेवा’ में ही गिना जाता है।
ये संविदाकर्मी दफ्तर में नाममात्र के वेतन पर, 24x7 साहब की सेवा में तत्पर रहते हैं और यदि कोई गलती हो जाए, तो “यह तो आउटसोर्स्ड स्टाफ है” कहकर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। यदि मुझे भी एक बार संविदा कर्मियों के इस्तेमालीकरण की ऐसी शक्ति मिलती, तो शायद मैं भी हर शनिवार अपने घर की टाइलें चमकवाने का “ऑफिशियल मेंटेनेंस डे” घोषित कर देता। सच कहूं, यही असली 'विकास' होता—निजी उपयोग में सार्वजनिक संसाधनों की सुनियोजित लूट। सोचकर अफसोस होता है—काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता!
“योग्यता” नहीं, “यथार्थ” चाहिए—सुंदरियों की नियुक्ति का गूढ़ विज्ञान : किसी भी सरकारी विभाग के सफल संचालन में जो असली ‘पल्स’ होती है, वह होती है रजिस्ट्रेशन डेस्क पर बैठी हुई मुस्कुराती हुई लड़की। सिविल विभाग के प्रमुख यदि सुंदरता के ‘मूल्यांकनकर्ता’ भी बन जाएं, तो चयन प्रक्रिया में ‘डिग्री’ नहीं, 'डिम्पल' देखे जाते हैं। “कैंडिडेट कम्युनिकेशन स्किल्स में तेज़ होनी चाहिए”—इसका मतलब होता है कि वह प्रमुख साहब को देखते ही “गुड मॉर्निंग सर!” कहे और ‘हैलो’ कहे तो पूरी टीम हिल जाए।
साहब के कमरे के बाहर नियुक्त इन कन्याओं की सुंदरता ही ‘अथॉरिटी’ का पर्याय बन जाती है। सरकारी वेतन पर ‘ग्लैमर’ की सेवा मिलना कोई आम बात नहीं है। ये नियुक्तियाँ इतनी गोपनीय होती हैं कि विभागीय फाइल में कभी 'आउटसोर्स स्टाफ' लिखा मिलता है, तो कभी 'कंसल्टेंट HR सपोर्ट'। और इनका असली काम? मीटिंग से पहले फूलों की सजावट, चाय की ट्रे की मुस्कान और साहब के मूड को बेहतर बनाए रखना।
काश, मेरे पास भी सुंदरता का ऐसा पैमाना होता, तो मैं भी ऑफिस को 'कॉर्पोरेट स्पा सेंटर' में बदल देता और हर फाइल के साथ एक ‘फ्लर्टिंग’ नोट भी लगवाता। क्या गजब का वातावरण होता—सरकारी कामकाज के बीच ‘सॉफ्ट स्माइल्स’ और ‘सुगंधित उपस्थिति’। हाय री नियति! काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता।
कार्यालय नहीं, मौज-मस्ती क्लब! : एक समय था जब दफ्तर में सिर्फ फाइलें और फ़ैसले होते थे, पर सिविल विभाग में साहब के कमरे का दृश्य किसी ‘मल्टीस्पेशलिटी क्लब’ जैसा होता है—जहां ग़म गलत करने को हर समय एक ट्रे पर कुछ न कुछ परोसा जाता है। सरकारी AC ऑफिस में बैकग्राउंड में मधुर संगीत, अरोमा डिफ्यूज़र और दोपहर में 'वर्किंग लंच' के नाम पर कैटरिंग सेवा। दोपहर बाद 'रेस्टिंग ब्रेक' और शाम को 'हाई टी' का आयोजन, जिसमें बिस्कुट की जगह 'बिकने योग्य' ठेकेदार बैठे होते हैं।
फाइलों की भाषा में शब्द नहीं, संकेत चलते हैं—“इसका काम हो जाएगा, पर थोड़ा ध्यान दीजिए” का अर्थ है—‘थोड़ा ध्यान’ सीधे ब्रीफकेस में डालिए। और जब साहब किसी योजना की मंजूरी देने के मूड में होते हैं, तो अक्सर यह मूड बनता है imported वाइन और imported company से। यह ‘फाईल क्लब’ व्यवस्था का सबसे सुंदर रूप है—जहां सरकारी नीतियों का निर्माण चखने और चुल्लू भर घूँटों के बीच होता है।
मुझे कभी यह अनुभव नहीं मिला, पर कल्पना करता हूँ कि अगर मेरी टेबल पर भी सरकारी स्कॉच और स्कर्ट्स की टकराहट होती, तो शायद मेरे हस्ताक्षर भी लाखों का सौदा बन जाते। दिल कहता है—काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता!
दफ्तर से बंगला, बंगले से फार्महाउस—सार्वजनिक पद का निजी विस्तार : सिविल विभाग का प्रमुख केवल पद नहीं, एक सम्राट होता है, जो सरकारी संसाधनों से निजी साम्राज्य रचता है। विभागीय गाड़ी का इस्तेमाल बच्चों की ट्यूशन और पत्नी की पेंटिंग क्लास के लिए होता है और कभी-कभी प्रेमिकाओं को पिकनिक पर ले जाने के लिए भी। विभाग का बंगला पहले 'रिटायर्ड Bungalow' कहलाता है, फिर उसे ‘Renovation under urgent requirement’ के नाम पर लाखों की लागत से स्वर्ग में बदला जाता है।
इस बंगले में जो प्लास्टर होता है, वह सरकारी होता है, पर दीवारें साहब के निजी स्वाद की होती हैं। किचन से लेकर गार्डन तक हर कोना ‘डिपार्टमेंटल इन्नोवेशन’ का नमूना होता है। और जब साहब फार्महाउस बनवाते हैं, तो विभाग के पुराने फर्नीचर, पाइप, वाशबेसिन तक ट्रकों में भरकर वहां पहुंच जाते हैं—बिलकुल ‘Reuse और Recycle’ की भावना से। अगर मुझे भी सिविल विभाग का प्रमुख बनने का मौका मिलता, तो मैं भी अपने गाँव में “Innovation Centre” के नाम पर फार्महाउस बना डालता—जहां पक्की सड़कों का निर्माण मेरी खेतों तक और बिजली का खंभा मेरे डीजे सिस्टम तक पहुंचता। कितना सरल और सुंदर स्वार्थ होता—काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता!
गुप्त रिकॉर्डिंग, ब्लैकमेल और “फाइलों के देवता” बनने की चतुराई : सिविल विभाग में तकनीकी ज्ञान से ज्यादा जरूरी होता है “तकनीकी ब्लैकमेल” का हुनर। विभाग का प्रमुख अगर सचमुच चतुर हो, तो वो हर वार्तालाप, हर बैठक, हर होटल मीटिंग की गुप्त रिकॉर्डिंग करवा लेता है। मोबाइल, सीसीटीवी, लैपटॉप, पेन ड्राइव—सब कुछ हथियार बन जाते हैं। जो अधिकारी रिश्वत लेते हैं, उन्हें प्रमाण सहित ‘फोल्डर में सहेज’ लिया जाता है और जो नहीं लेते, उन्हें “ठंडा करके घर भेजने” का इंतज़ाम हो जाता है।
हर बड़े टेंडर के पीछे एक ‘हिडन कैमरा’ होता है और हर ‘गुलाबी लिफाफा’ भविष्य की गारंटी बन जाता है। जब भी कोई वरिष्ठ अधिकारी ज़्यादा ईमानदार बनने की कोशिश करता है, तो उनके ‘पुराने फुटेज’ सामने लाकर कहा जाता है—"सर, आप हमारे पुराने मित्र हैं, भूल जाइए पुरानी बातों को, देश तो चलता ही समझौतों पर है।" अगर मुझे भी यह कला आती, तो शायद मैं भी अपने फ़ोन के गैलरी में इतना 'साक्ष्य संग्रह' कर लेता कि RTI वाले भी मेरे सामने हाथ जोड़ते। सच में, गुप्त रिकॉर्डिंग से जब भ्रष्टाचार संरक्षण का कवच बन जाए, तो फिर साहबों की गर्दनें झुकी ही रहती हैं। अफ़सोस होता है—काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता!
सरकारी दफ्तरों की दीवारें केवल ईंट-पत्थर से नहीं, बल्कि चालाकी, चापलूसी और कमीशन की मोटी परतों से बनी होती हैं। और अगर दफ्तर में सिविल विभाग हो, तो समझिए भ्रष्टाचार का महल पहले ही तैयार हो चुका है—बस उसमें घुसने के लिए “पद” की चाबी चाहिए। कहते हैं, सिविल इंजीनियरिंग ईंट, बालू और सीमेंट से बनती है, लेकिन सिविल विभाग का प्रमुख बनने के बाद समझ में आता है कि असली निर्माण तो रिश्वत, रेवड़ी और रसूख से होता है। मैं जब दफ्तर में फटी जेब वाली पैंट पहनकर वॉटर कूलर के नीचे बैठा करता था, तब सोचता था—काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता!
ईंट से ईंट नहीं, रिश्वत से रिश्वत जोड़ना : सिविल विभाग का प्रमुख होना मतलब एक ऐसा कलाकार होना, जो सरकार के बजट को बगैर ब्रश छुए अपने ही रंग में रंग दे। जिस जगह 50 हज़ार में टाइल लग सकती है, वहाँ 5 लाख का टेंडर पास कराना, कोई साधारण कला नहीं है—यह तो ‘सिविलीय चातुर्य’ की पराकाष्ठा है। क्या मजाल कि बिल्डिंग की दीवार खड़ी हो और उसकी पुताई में ‘हेड साहब’ की जेब रंगीन न हो! और अगर रंग गुलाबी है, तो समझिए कि उसमें ठेकेदारों की गुलाबी नोटों की परत छिपी है।
हर टेंडर, हर रिपेयर, हर मरम्मत में ऐसा “क्लासिक एडजस्टमेंट” होता है कि सरकारी सीमेंट से निजी बाथरूम भी बन जाते हैं। और जब कोई पूछता है—"सर, ये बिल में इतना खर्च कैसे दिखा?", तो उत्तर आता है—"कंस्ट्रक्शन क्वालिटी प्रायोरिटी है।" यदि मुझे भी ऐसी क्वालिटी दिखाने का मौका मिलता, तो शायद मेरी खाट तो टूटी होती, पर घर में तीन मंजिलें बन चुकी होतीं। हाय रे किस्मत! काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता।
निरीक्षण का नाम सुनते ही 'अतिथि देवो भव' अभियान : जैसे ही मुख्यालय से कोई ‘निरीक्षण दल’ आता है, वैसे ही सिविल विभाग के प्रमुख की आत्मा ‘होटल मैनेजर’ में बदल जाती है। निरीक्षक अधिकारी का स्वागत केवल माला से नहीं होता, वहाँ तो बोतलों की मालाएं होती हैं। एक पूरा ‘हॉस्पिटैलिटी प्लान’ बनता है—शराब, शबाब, शेरवानी और शोभा— ऑल इन्क्लूसिव पैकेज! अधिकारी का मूड सेट करना मतलब जांच रिपोर्ट को 'फूलों' से भर देना। अगर कोई ईमानदार निरीक्षक गलती से फाइल खोलने की कोशिश करता है, तो तुरंत एक सुशील बालिका को चाय लेकर भेजा जाता है, जो कहती है—“सर, चाय पीजिए, दस्तावेज़ बाद में देख लीजिए।”
और यदि निरीक्षक साहब ने दो घूंट ज़्यादा पी लिए, तो पीछे से स्टाफ वीडियो बना लेता है—“साक्ष्य संग्रहण” के नाम पर। फिर क्या? अगली बार वही वीडियो दिखाकर कहा जाता है—“सर, आप हमारे पुराने अतिथि हैं, मित्रवत रिश्ता बनाए रखें।” ऐसा प्रेम, ऐसा आदर, ऐसा “कंट्रोल” पाने की कला यदि मुझे मिलती, तो मैं भी मुख्यालय के सबसे कठोर अधिकारी को “डियर दोस्त” बना देता। दिल कहता है—काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता।
उपहार देने की नीति और 'बच निकलने' की रणनीति : बजट की रकम में खेल और खेल में बचाव, दोनों में माहिर सिविल हेड साहब, हर त्यौहार पर ‘वेलफेयर डिपार्टमेंट’ बन जाते हैं। दीपावली आते ही विभागीय बजट से उपहार खरीदे जाते हैं—पर वितरण ‘अधिकारियों’ के दरवाजे तक होता है। कोई पूछे कि "इतने महंगे गिफ्ट्स किस मद में दिए गए?" तो जवाब तैयार—"इम्प्लॉई मोटिवेशन।" गिफ्ट्स में घड़ियां, गहने, महंगे मोबाइल और अगर वीआईपी हो तो, विदेशी शराब भी।
यह सब होता है विभागीय 'गुडविल' के नाम पर और जो अधिकारी ईमानदारी की बात करता है, उसके घर 'सिविल' का नल कभी ठीक नहीं होता। बच निकलने की कला तो इतनी सधी हुई होती है कि CAG ऑडिट के वक्त भी फाइलों में वो ही खर्च दिखता है जो 'सत्य' के करीब हो—बाकी सारा माल नकद या गुप्त खातों में होता है। अगर मुझे भी ऐसी 'फाइनेंशियल एक्रोबेटिक्स' आती, तो शायद मैं भी हर त्यौहार पर 'उपहार वितरण' का बहाना बनाकर अपनी 'लॉबी' मजबूत करता। सोचते-सोचते दिल से आह निकलती है—काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता।
ठेकेदारों की बोली और ‘सौदेबाज़ी की सभ्यता’ : सरकारी भवन बनाना और गिराना दोनों ही ठेकेदारों के भरोसे होता है, लेकिन ठेके मिलते नहीं, दिलाए जाते हैं। जिस ठेकेदार के पास बोली से ज्यादा ‘बोली लगाने’ की प्रतिभा हो, वही साहब का प्रिय बनता है। टेंडर की प्रक्रिया ऐसी होती है कि कभी भी सबसे अच्छा प्रस्ताव नहीं, बल्कि सबसे ज़्यादा 'सेवा भाव' दिखाने वाला विजेता बनता है। और सेवा भाव का पैमाना क्या है? बॉक्स में रखी नोटों की गिनती और बैग की चमक।
कई बार टेंडर के कागज़ तो फॉर्मेलिटी के लिए होते हैं, असली निर्णय तो चाय की टेबल पर, महंगे होटल के कमरे में होता है, जहाँ ‘शाम की बैठक’ के बाद ठेके का भविष्य तय होता है। यदि मैं भी उस टेबल पर होता, जहाँ ठेकेदार खुद आकर कहता, “सर, आप जैसा मार्गदर्शक मिले तो हमें कुछ देना भी अच्छा लगता है”, तो शायद मैं भी ‘मार्गदर्शन’ को आय का स्रोत बना लेता। हे भगवान! इतनी ‘सौम्य लूट’ करने का अवसर अगर मेरी किस्मत में होता, तो मैं भी विभागीय नीतियों को 'नीतिगत लाभ' में बदल देता। सोचता हूँ, काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता।
संविदा कर्मी या निजी नौकर? सरकारी कार्यालय का ‘घर-घर की कहानी’ : सिविल विभाग में संविदा पर रखे गए कर्मचारी अक्सर वो ‘अदृश्य योद्धा’ होते हैं, जिनका काम सरकारी भवन से लेकर साहब के जूते तक चमकाने का होता है। टेंडर से लेकर टॉयलेट तक उनका योगदान अनमोल होता है, परन्तु पेमेंट के नाम पर सिर्फ टालमटोल। साहब लोग उन्हें चाय बनाने, बच्चों को स्कूल छोड़ने, मेमसाब को शॉपिंग मॉल ले जाने, कुत्ते को घुमाने और त्योहारों में झाड़ू-पोंछे के लिए प्रयोग करते हैं। अगर किसी संविदा कर्मचारी को दफ्तर के बजट से खरीदे गए झाड़ू से साहब के ड्राइंग रूम की सफाई करने का अवसर मिले, तो वह ‘सरकारी सेवा’ में ही गिना जाता है।
ये संविदाकर्मी दफ्तर में नाममात्र के वेतन पर, 24x7 साहब की सेवा में तत्पर रहते हैं और यदि कोई गलती हो जाए, तो “यह तो आउटसोर्स्ड स्टाफ है” कहकर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। यदि मुझे भी एक बार संविदा कर्मियों के इस्तेमालीकरण की ऐसी शक्ति मिलती, तो शायद मैं भी हर शनिवार अपने घर की टाइलें चमकवाने का “ऑफिशियल मेंटेनेंस डे” घोषित कर देता। सच कहूं, यही असली 'विकास' होता—निजी उपयोग में सार्वजनिक संसाधनों की सुनियोजित लूट। सोचकर अफसोस होता है—काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता!
“योग्यता” नहीं, “यथार्थ” चाहिए—सुंदरियों की नियुक्ति का गूढ़ विज्ञान : किसी भी सरकारी विभाग के सफल संचालन में जो असली ‘पल्स’ होती है, वह होती है रजिस्ट्रेशन डेस्क पर बैठी हुई मुस्कुराती हुई लड़की। सिविल विभाग के प्रमुख यदि सुंदरता के ‘मूल्यांकनकर्ता’ भी बन जाएं, तो चयन प्रक्रिया में ‘डिग्री’ नहीं, 'डिम्पल' देखे जाते हैं। “कैंडिडेट कम्युनिकेशन स्किल्स में तेज़ होनी चाहिए”—इसका मतलब होता है कि वह प्रमुख साहब को देखते ही “गुड मॉर्निंग सर!” कहे और ‘हैलो’ कहे तो पूरी टीम हिल जाए।
साहब के कमरे के बाहर नियुक्त इन कन्याओं की सुंदरता ही ‘अथॉरिटी’ का पर्याय बन जाती है। सरकारी वेतन पर ‘ग्लैमर’ की सेवा मिलना कोई आम बात नहीं है। ये नियुक्तियाँ इतनी गोपनीय होती हैं कि विभागीय फाइल में कभी 'आउटसोर्स स्टाफ' लिखा मिलता है, तो कभी 'कंसल्टेंट HR सपोर्ट'। और इनका असली काम? मीटिंग से पहले फूलों की सजावट, चाय की ट्रे की मुस्कान और साहब के मूड को बेहतर बनाए रखना।
काश, मेरे पास भी सुंदरता का ऐसा पैमाना होता, तो मैं भी ऑफिस को 'कॉर्पोरेट स्पा सेंटर' में बदल देता और हर फाइल के साथ एक ‘फ्लर्टिंग’ नोट भी लगवाता। क्या गजब का वातावरण होता—सरकारी कामकाज के बीच ‘सॉफ्ट स्माइल्स’ और ‘सुगंधित उपस्थिति’। हाय री नियति! काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता।
कार्यालय नहीं, मौज-मस्ती क्लब! : एक समय था जब दफ्तर में सिर्फ फाइलें और फ़ैसले होते थे, पर सिविल विभाग में साहब के कमरे का दृश्य किसी ‘मल्टीस्पेशलिटी क्लब’ जैसा होता है—जहां ग़म गलत करने को हर समय एक ट्रे पर कुछ न कुछ परोसा जाता है। सरकारी AC ऑफिस में बैकग्राउंड में मधुर संगीत, अरोमा डिफ्यूज़र और दोपहर में 'वर्किंग लंच' के नाम पर कैटरिंग सेवा। दोपहर बाद 'रेस्टिंग ब्रेक' और शाम को 'हाई टी' का आयोजन, जिसमें बिस्कुट की जगह 'बिकने योग्य' ठेकेदार बैठे होते हैं।
फाइलों की भाषा में शब्द नहीं, संकेत चलते हैं—“इसका काम हो जाएगा, पर थोड़ा ध्यान दीजिए” का अर्थ है—‘थोड़ा ध्यान’ सीधे ब्रीफकेस में डालिए। और जब साहब किसी योजना की मंजूरी देने के मूड में होते हैं, तो अक्सर यह मूड बनता है imported वाइन और imported company से। यह ‘फाईल क्लब’ व्यवस्था का सबसे सुंदर रूप है—जहां सरकारी नीतियों का निर्माण चखने और चुल्लू भर घूँटों के बीच होता है।
मुझे कभी यह अनुभव नहीं मिला, पर कल्पना करता हूँ कि अगर मेरी टेबल पर भी सरकारी स्कॉच और स्कर्ट्स की टकराहट होती, तो शायद मेरे हस्ताक्षर भी लाखों का सौदा बन जाते। दिल कहता है—काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता!
दफ्तर से बंगला, बंगले से फार्महाउस—सार्वजनिक पद का निजी विस्तार : सिविल विभाग का प्रमुख केवल पद नहीं, एक सम्राट होता है, जो सरकारी संसाधनों से निजी साम्राज्य रचता है। विभागीय गाड़ी का इस्तेमाल बच्चों की ट्यूशन और पत्नी की पेंटिंग क्लास के लिए होता है और कभी-कभी प्रेमिकाओं को पिकनिक पर ले जाने के लिए भी। विभाग का बंगला पहले 'रिटायर्ड Bungalow' कहलाता है, फिर उसे ‘Renovation under urgent requirement’ के नाम पर लाखों की लागत से स्वर्ग में बदला जाता है।
इस बंगले में जो प्लास्टर होता है, वह सरकारी होता है, पर दीवारें साहब के निजी स्वाद की होती हैं। किचन से लेकर गार्डन तक हर कोना ‘डिपार्टमेंटल इन्नोवेशन’ का नमूना होता है। और जब साहब फार्महाउस बनवाते हैं, तो विभाग के पुराने फर्नीचर, पाइप, वाशबेसिन तक ट्रकों में भरकर वहां पहुंच जाते हैं—बिलकुल ‘Reuse और Recycle’ की भावना से। अगर मुझे भी सिविल विभाग का प्रमुख बनने का मौका मिलता, तो मैं भी अपने गाँव में “Innovation Centre” के नाम पर फार्महाउस बना डालता—जहां पक्की सड़कों का निर्माण मेरी खेतों तक और बिजली का खंभा मेरे डीजे सिस्टम तक पहुंचता। कितना सरल और सुंदर स्वार्थ होता—काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता!
गुप्त रिकॉर्डिंग, ब्लैकमेल और “फाइलों के देवता” बनने की चतुराई : सिविल विभाग में तकनीकी ज्ञान से ज्यादा जरूरी होता है “तकनीकी ब्लैकमेल” का हुनर। विभाग का प्रमुख अगर सचमुच चतुर हो, तो वो हर वार्तालाप, हर बैठक, हर होटल मीटिंग की गुप्त रिकॉर्डिंग करवा लेता है। मोबाइल, सीसीटीवी, लैपटॉप, पेन ड्राइव—सब कुछ हथियार बन जाते हैं। जो अधिकारी रिश्वत लेते हैं, उन्हें प्रमाण सहित ‘फोल्डर में सहेज’ लिया जाता है और जो नहीं लेते, उन्हें “ठंडा करके घर भेजने” का इंतज़ाम हो जाता है।
हर बड़े टेंडर के पीछे एक ‘हिडन कैमरा’ होता है और हर ‘गुलाबी लिफाफा’ भविष्य की गारंटी बन जाता है। जब भी कोई वरिष्ठ अधिकारी ज़्यादा ईमानदार बनने की कोशिश करता है, तो उनके ‘पुराने फुटेज’ सामने लाकर कहा जाता है—"सर, आप हमारे पुराने मित्र हैं, भूल जाइए पुरानी बातों को, देश तो चलता ही समझौतों पर है।" अगर मुझे भी यह कला आती, तो शायद मैं भी अपने फ़ोन के गैलरी में इतना 'साक्ष्य संग्रह' कर लेता कि RTI वाले भी मेरे सामने हाथ जोड़ते। सच में, गुप्त रिकॉर्डिंग से जब भ्रष्टाचार संरक्षण का कवच बन जाए, तो फिर साहबों की गर्दनें झुकी ही रहती हैं। अफ़सोस होता है—काश मैं सिविल विभाग का प्रमुख होता!
वरिष्ठ लेखक, पत्रकार, साहित्यकार एवं वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह