डॉ.शैलेश शुक्ला, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
काश मैं बड़े निगम का निर्देशक (वित्त) होता—जो कि सिर्फ एक पद नहीं, बल्कि एक शक्ति-पोशक स्थिति है। मैं बस बैलेंस शीट नहीं ही नहीं, बल्कि उसके साथ ही बैलेंस ऑफ पावर भी संभालता। जहाँ कर्मचारी पोर्टल मुद्दों पर नचीथे रहते, वहीं मेरी दुनिया में वित्तीय फ्लो से ज्यादा जरूरी होता कैश फ्लो। प्रत्येक वित्तीय वर्ष एक अवसर है—बजट बंटवारे से लेकर ऑडिट ड्राफ्ट हार्ड ड्राइवर तक। एक आदत सी होती—“बैक डेटेड खर्च” की। यानी संसाधन की वजह पहले ही खा गया, जबकि रिपोर्ट में अभी पहुँचा। मैंने कभी “बोनाफाइड एक्सपेंस” पढ़ा है, लेकिन अगर मैं निदेशक (वित्त) होता, तो उसे “बिल्ड-अ-फॉर्चून योजना” कहता। खर्च भरे अनुबंध – ‘डिज़रीज़ की दुकान’
बड़े समझोते नाम ऐसे होते जैसे “सिस्टम इंटीग्रेशन, कम्पलींस वाद” इत्यादि—लेकिन असल में वह होते हैं प्रोजेक्ट घालमेल, जिसमें लागत स्वयं बढ़ाई जाती है और लाभ स्वयं में समाया जाता है। मान लीजिए— ₹10 करोड़ का प्लांट अपग्रेड, पर रचनाकार निधि ₹15 करोड़। ₹5 करोड़ की कमी कहाँ जाती? उसे कहते हैं 'कंप्लेक्स परियोजना लागत'—लेकिन मेरे ब्रीफकेस में वही उतरती है।
टेंडर गेमिंग – ‘किसके तावदे में तेज’ टेंडर निकालना आसान है—‘मनी ट्रांसफर’ करना मुश्किल नहीं है। जो पैरवी करता है, वही विजेता बनता है। प्री-क्वालिफ़िकेशन मीटिंग तो बस दिखावा करने का बहाना होता है—सच्ची मीटिंग होती है 5 सितारा होटल के लाउंज में। ऑफिशियल डिफेंस के लिए “पितृक ब्राफ,” माध्यमिक प्रमाण पत्र—सब कुछ है, बस कमीशन कागज़ में नहीं, बैंक अकाउंट में होता है।
लीक से आउट, और आउट से लीक : इंटर्नल ऑडिट की इलेक्ट्रीकल जुगाड़ इंटर्नल ऑडिट दस्तावेजों के जरिए लीक प्रुफ होना चाहिए, पर मेरे अधीन वह ‘क्रिप्टोफाइल’ बन जाते। खर्च का हर पन्ना 'मार्जिन ऑफ एरर' से नीचे आता है—और इसका मतलब मात्र यह होता है कि ₹10 लाख की खर्चा, ₹15 लाख का दिखा दिया गया। हर बार 'क्रॉस-चेक' CMS में होता है—पर वही CMS मैं हूँ!
निर्यात प्रोत्साहन – ‘डुअल अकॉउंट’ मोड : जो विदेशी कारोबारी भुगतान होता है, उसका आधा तो सच्चा अकाउंट पर, और आधा ‘डुअल अकॉउंट’ में। विदेशी मुद्रा प्रवाह का हिस्सा सरकारी कानून समझता है—लेकिन ‘कमाया किसने?’ परपूरी तरह ‘कंपनी गोपनीयता’ होती है। और वह ‘डुअल अकौंट’ ही शायद मेरा भविष्य निधि था।
सेकंडरी इन्कम स्ट्रीम्स – ‘ओवरटाइम इनकम’ नहीं, ओवरऑल इनकम मेरा पास समय भी होता, ऑफिस भी होता—लेकिन निदेशक होते हुए, मेरा ‘ओफिस टाइम’ बढ़ जाता था। आइडिया से ज़्यादा बॉटमलाइन मायने रखती थी। इसलिए मैंने ‘कंसल्टिंग प्रोजेक्ट्स’ का एक अलग देप्ट बनाया—जहाँ ऑफिस वर्क खत्म होने के बाद बिक्री की 'अंडर-द-टेबल' मेन्यु चलती थी।
नियम, रिश्वत, और रिलेशनशिप मैनेजमेंट : प्रोमोशन की कीमत असल में ‘पसंद’ होती है जो कर्मचारी कड़ी मेहनत करेगा, वह नहीं चलेगा; जो सफेद घोड़े पर चढ़कर आएगा—वही अधिकारी कहलाएगा। प्रमोशन मीटिंग में सिर्फ मेनेट पर मोनिटर नहीं होता—मैनेजर की मुस्कुराहट का स्कोर होता है। और मैं? मैं सचिव नहीं, स्कोरकीपर होता। बोनस का गैर-रूपरेखा मॉडल
बोनस दस्तावेज़ में तो होता है—“परफॉर्मेंस इंडिकेटर 120% होना चाहिए।” पर असल में, Cushy Projects पर ‘चाल अधूरा हो’ से बोनस निकल जाता है, जबकि कालंडर में प्रेजेंट रहने वाला कर्मचारी खाली हाथ रह जाता है। विकास अधिकारियों की ‘हैंडशेक रॉयल्टी’ कंपनी विकास पर भरोसा कर के सरकार से सब्सिडी समेत ऋण पाती है, लेकिन विकास अधिकारी से रिश्वत लेने की संस्कृति पहले से पक्की होती है। मैं विकास निदेशक नहीं, एक ‘संविदान प्रोत्साहन प्रबंधक’ बन जाता।
प्रदर्शन की आड़ में सरकारी धन का दोहरी धारा - डिजिटल उन्नयन घोटाले : हर श्रेणी में डिजिटल अपग्रेडेशन का राज है—जिसमें ऐप्लिकेशन बिल्डिंग, हार्डवेयर इंटीग्रेशन, क्लाउड सर्वर, यूजर ट्रेनिंग प्रेसेंस—ये सभी खर्चों में 'डुप्लीकेट रशीद' तक भेजा जा सकता था। और मैं? चार्ट में डेटा डालना नहीं, उसे डेटा ड्रिपिंग मे बदल देता। सिक्योरिटी सिस्टम – ‘इन्वेस्टमेंट’ नहीं, ‘इंसाइटमेंट’ सुरक्षा कैमरे, एंट्री लॉग सिस्टम, प्रोएक्टिव एलर्ट सब ‘सिक्योरिटी’ की आड़ में लगे होते हैं। पर असल में, उसका उपयोग केवल मुझे अंदर और बाहर की गतिविधि ट्रैक करने के लिए होता है—और साथ ही कंप्रोमाइज वीडियो एक संग्रह प्रणाली में स्टोर हो जाता है। मीडिया हैंडलिंग और ‘मी-टू प्रोटेक्शन’ जब घोर भ्रष्टाचार सामने आता है, तो ब्रीफिंग रूम में तुरंत एक ‘मी-टू’ प्रेस नोट तैयार हो जाता है—क्या कमी आई, क्या सुधारा गया और डिरेक्टर (वित्त) की छवि अब भी ‘विनर’ बनी रहती है। मीडिया जानती है—‘डिजास्टर कंट्रोल सेंटर’ अब मेरे अधीन है। मैंने अपना विरोध-भाषण नहीं लिखा है—मैंने सिर्फ संचालन प्रोटोकॉल बताया है। यह व्यंग्य पढ़कर कोई सलाह न दें—न तो किसी सरकार से, न किसी अदालत से। यह सिर्फ कल्पना का दृश्य है, जहाँ निर्देशक (वित्त) बनना एक सक्रिय चुनाविश्री स्थिति होती है—शक्ति, सौदेबाज़ी, सीमा-रहित लॉजिक, कमिशन-कलेक्शंस, और साथ में एक ‘बड़ी कंपनी में बड़ा नियंत्रण’ का आश्वासन। काश… मैं किसी बड़ी कंपनी का निदेशक (वित्त) होता! तो मैं भी फाइलों के पीछे बजट, और बजट के पीछे अपना नाम लिखता… ऊपर से ग्लास वाली घड़ियाँ पहनकर, नीचे से ब्रीफ़केस में ‘नोटों का टाइम मैनेजमेंट’ करता!
कागज़ों की कारस्तानी और कैशबुक का करिश्मा : अगर मैं किसी बड़ी कंपनी का वित्त निदेशक होता, तो मेरी दुनिया चालान और चेकबुक से नहीं, चूकों और चमत्कारों से चलती। मेरी मेज पर रखी होती एक मोटी रजिस्टरनुमा डायरी, जिसे मैं 'माई बुक ऑफ इन्फ्लुएंस' कहता। उस डायरी में दर्ज होते खास लोगों के नाम, खास ठेकेदारों के नंबर और उन पर दिए गए अप्रत्यक्ष संकेत – “इस बार 15% से कम नहीं”, “सीईओ साहब को अलग से याद रखें”, “बिल में थोड़ा GST का जादू घोलना”। कागज़ों में जो खर्च ₹1.5 लाख का होता, वो सिस्टम में जाते-जाते ₹5.75 लाख का हो जाता – और पूछने पर जवाब मिलता, “सर, इन्फ्लेशन इम्पैक्ट और इनवॉयस एलाइनमेंट हुआ है।” अब कौन सी वित्तीय विशेषज्ञ समिति इन शब्दों का सही अर्थ समझ पाती? और जो समझ भी जाती, वह चुपचाप समझदारी दिखा देती – क्योंकि ‘ट्रांसफर पोस्टिंग’ भी आखिर हमारे ही अनुमोदन से तय होती।
हर वर्ष के बजट में कुछ मद ऐसे होते जो सिर्फ 'लपेटने' के लिए बने होते। जैसे CSR – Corporate Social Responsibility. अब ये शब्द सुनने में जितना सामाजिक लगता, असल में उतना ही स्वार्थी होता। किसी एनजीओ को ₹2 करोड़ का ग्रांट, बदले में आधा खर्च एक पुराने कंप्यूटर पर और बाकी मुझे ‘धन्यवाद स्वरूप भेंट’ के रूप में एक बॉक्स में। वही एनजीओ मेरे भतीजे के नाम पर पंजीकृत होता – और इसकी रिपोर्ट में लिखा होता – “स्लम एरिया में डिजिटल एजुकेशन का विकास”। असल में जो स्लम होता, वह स्लो मोशन में बस मेरे बैंक अकाउंट की ग्रोथ देख रहा होता।
ऑडिट का ऑडियो और साइलेंस की सैलरी : ऑडिट इस देश में एक रहस्य है। अगर मैं वित्त निदेशक होता, तो ऑडिटर को मैं ‘मौसम विज्ञानी’ मानता। जैसे मौसम बदलने से पहले संकेत आते हैं, वैसे ही ऑडिट से पहले कुछ संकेत मिलते—ब्रीफकेस बड़ा हो गया, बैंकों से फोन आना शुरू हो गए, चाय की जगह कॉफी दी जाने लगी। मैं पहले ही ऑडिटर के स्वागत की योजना बना चुका होता—“संपर्क प्रमुख” नामक एक विश्वस्त कर्मचारी की ड्यूटी लगाई जाती जो उनके होटल, खानपान और 'आराम' की व्यवस्था करता। अगर ऑडिटर महोदय थोड़े सख्त हुए, तो उनके रूम में ‘गलती से’ कंपनी की किसी महिला कर्मचारी को देर रात फाइल देने भेजा जाता, और फिर गलती से ही सीसीटीवी कैमरा चालू हो जाता। अगली सुबह से रिपोर्ट में बदलाव आने लगता – “फाइंडिंग्स इन प्रोसेस”, “इरेगुलरिटी रेक्टिफाइड” और “नॉन-कम्प्लायंस अब अंडर कंट्रोल”।
कभी-कभी बड़े अधिकारियों को शांत करने के लिए एक और सिस्टम होता – “इंसेंटिव पॉलिसी इन रिव्यू”। यानी उन्हें समीक्षा के नाम पर कुछ बोनस, कुछ गिफ्ट कार्ड और एक स्मार्टवॉच का पैकेज दिया जाता, जिसमें कंपनी का नहीं, स्विट्जरलैंड का लोगो होता। कहने को कंपनी का लेखा-परीक्षण चल रहा होता, लेकिन असल में मेरा ‘क्लोजिंग बैलेंस’ मजबूत हो रहा होता। मैं खुद को देखता – एक ऐसा महापुरुष, जिसने “सरकारी नियमों की छाया में निजी बागवानी” करना सीख लिया था।
बिल की बिल्ली और टेंडर का ट्रैप : कंपनी में कोई भी सामान खरीदना, केवल एक क्रय प्रक्रिया नहीं – एक रिवॉर्डिंग सिस्टम होता। यदि मैं निदेशक वित्त होता, तो हर टेंडर को मैं 'डिजिटल बकरीद' समझता, जिसमें एक-एक विभागीय अफसर को 'पैकेज ऑफ मीट' मिलता। टेंडर का नियम सीधा होता—जो ज्यादा खिलाए, वही निविदा पाए।
बिल की फाइलें अक्सर लाल टेप में बंधी होतीं, पर कुछ लोगों के लिए वह टेप कटा रहता। क्योंकि मैं जानता था—टाइम इज़ मनी, और सही समय पर कट मनी ही असली मनी है। किसी बार जब सप्लायर की फाइल अटकती, तो वो बेचारा मेरे पीए को पकड़ता, और पीए उसे कहता—“साहब थोड़े व्यस्त हैं, लेकिन अगर आप रिसेप्शन के रजिस्टर में कुछ खास छोड़ जाएं तो शायद आपकी फाइल चाय के साथ उनके टेबल पर पहुंच जाए।” और जो सामान खरीदा जाता—वह भी ऐसा जो कुछ महीनों में खराब हो जाए। क्योंकि अगर फर्नीचर सालों तक टिकेगा, तो नया ऑर्डर कैसे मिलेगा? मेरी समझ कहती थी—“Quality kills opportunity.” इसलिए जो भी खरीदी होती, उसमें “कमीशन एब्सॉर्प्शन कैपेसिटी” पहले देखी जाती।
ई-गवर्नेंस से ई-बेलेंस तक : आजकल सब कहते हैं—“डिजिटलीकरण जरूरी है।” पर यदि मैं वित्त निदेशक होता, तो मैं इसे कहता—“डिजिटलीकरण का डिजी-धंधा।” हर ई-प्रोजेक्ट में हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर और सर्वर कॉन्ट्रैक्ट्स ऐसे पास किए जाते जैसे कोई विवाह का बजट बना रहा हो। ERP सिस्टम को इतना जटिल बना दिया जाता कि किसी को समझ ही न आए, और जो समझे वह किसी को बता न पाए। एक बार मैंने देखा था—एक ई-गवर्नेंस कॉन्ट्रैक्ट में ₹40 लाख सिर्फ “डेटा माइग्रेशन” के नाम पर रखे गए थे। जबकि डेटा एक ही एक्सेल शीट में था। लेकिन जब मैंने पूछा कि इसका खर्च इतना क्यों? तो जवाब मिला – “सर, यह क्लाउड बेस्ड है, और एन्क्रिप्शन लगाना होता है।” फिर क्या था? उसी दिन मैंने तय किया कि अगली बार जब कोई कहे ‘क्लाउड’, तो मैं सिर्फ आसमान न देखूं, अपना बैंक स्टेटमेंट भी चेक करूं।
एच.आर. (HR) हैंडलिंग – भर्तियों की बजाए ‘भेंटियों’ का खेल : किसी भी कंपनी का सबसे बड़ा बजट विभाग होता है – मानव संसाधन यानी HR. और यदि मैं वित्त निदेशक होता, तो मैं HR को ‘ह्यूमन रिचनेस’ विभाग बना देता। भर्तियों के लिए विज्ञापन निकलता, लेकिन नियुक्ति उन्हीं की होती जो पहले से ‘संपर्क सूत्र’ में होते। योग्यता को परखने का मानक न ज्ञान होता, न अनुभव, बल्कि ‘गिफ्ट की गारंटी’ होती। हर नियुक्ति की फाइल के पीछे होता एक “स्पेशल रिमार्क्स” वाला पन्ना, जिसमें कोडवर्ड होता – “क्लोज टू एम.डी.”, “रेगुलर विजिटर”, “VIP CANDIDATE”, इत्यादि।
ऐसे कर्मचारी, जिनका काम केवल विभाग प्रमुख के मूड को ठीक रखना होता, वे वेतन भी सबसे ज्यादा पाते। कोई ‘कल्चरल अफसर’ बनकर हर शुक्रवार लंच मीटिंग्स का आयोजन करता, तो कोई ‘कॉर्पोरेट हेल्थ कोऑर्डिनेटर’ बनकर योगाभ्यास के नाम पर डायरेक्टर की बेटी को ‘पर्सनल ट्रेनिंग’ देता। और इनकी सैलरी? इतनी कि बड़े-बड़े अनुभवी अकाउंटेंट जल-भुन जाएं। जब भी कोई कहता कि “सर, यह नियुक्ति नियम के विरुद्ध है”, तो मैं विनम्र मुस्कान के साथ जवाब देता—“यह नियुक्ति नहीं, निवेश है – इन लोगों से कंपनी का ‘क्लाइमेट’ सुधरता है।”
यात्रा भत्ता और विदेश यात्राएं – घूमो दुनिया, बिल भेजो कार्यालय
कंपनी में एक और कमाल की नीति होती – यात्रा भत्ता नीति। और यदि मैं निदेशक (वित्त) होता, तो इस नीति को "Vacational Asset Management Policy" नाम देता। यानी एक ऐसी नीति, जिससे आप स्विट्ज़रलैंड जाकर भी कह सकें कि “यह ट्रिप कंपनी के इन्वेस्टमेंट पोर्टफोलियो स्टडी के लिए था।” हर दो महीने में एक "इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस" में नामांकन कराया जाता – चाहे उसमें कोई सहभागी न हो, पर रजिस्ट्रेशन शुल्क, हवाई टिकट, फाइव स्टार होटल और डे-डायट भत्ता – सब क्लेम किया जाता। जब कोई पूछता कि "सर, इस यात्रा का लाभ क्या मिला?" तो मैं ईमेल फॉरवर्ड कर देता—जिसमें किसी विदेशी अफसर की एक लाइन होती – “Nice presentation Mr. Sharma.” और यही प्रमाण बनता अगली यात्रा के लिए। भारत में भी जब यात्रा की जाती, तो उसका उद्देश्य सिर्फ बैठक नहीं, बैठक के बाद की बैठक होती – यानी होटल का बैंक्वेट हॉल, संगीत, शराब और मनोरंजन कार्यक्रम। इन सबका खर्च ‘प्रशिक्षण और विकास मद’ में जाता – और अंत में इसका ऑडिट भी उसी अफसर से पास कराया जाता, जो उसी यात्रा में मेरे साथ गया था।
रिटायरमेंट से पहले का रिवॉर्ड राउंड – ‘स्वर्णिम विदाई’ की स्वर्णिम लूट : यदि मैं निदेशक वित्त होता, तो मैं यह अच्छी तरह जानता कि सेवा के अंतिम दो वर्ष सबसे मूल्यवान होते हैं। यही वो समय होता जब फाइलों की स्पीड दुगुनी हो जाती और सिग्नेचर की कीमत तिगुनी। सेवानिवृत्ति से पहले 'वित्तीय नीतियों' में कुछ जरूरी बदलाव किए जाते – जैसे बोनस स्कीम में बदलाव, ‘प्रोजेक्ट अप्रूवल चार्जेस’ में बढ़ोतरी, और कुछ कंपनियों को 'रेगुलर वेंडर' घोषित करना। इन निर्णयों में से कुछ ऐसे होते जिन्हें ‘पोस्ट रिटायरमेंट सपोर्ट’ कहा जाता।
कई कंपनियों में यह परंपरा रही है कि सेवानिवृत्त अधिकारी को 'कंसल्टेंट' बना दिया जाए – और उन्हें हर महीने ₹2 लाख की फीस दी जाए, भले ही वे केवल दो मेल जवाब दें। यह "Return on Loyalty" होता, जिसकी समीक्षा कोई नहीं करता। मैं सोचता कि अगर मैं होता निदेशक (वित्त), तो अपने रिटायरमेंट से पहले एक "इथिकल फेयरवेल फंड" बनवाता – जिसका उपयोग मेरे लिए दो साल तक 'भूतपूर्व निदेशक' के रूप में गोल्फ क्लब की फीस, बीमा प्रीमियम और विदेश यात्रा पर खर्च किया जाता।
निष्कर्ष – चेकबुक से नहीं, चतुराई से चलता है वित्त का खेल : अंत में जब मैं सोचता हूँ कि 'काश मैं किसी बड़ी कंपनी का निदेशक (वित्त) होता', तो मुझे यह समझ आता है कि इस पद की शक्ति चेकबुक या टैली में नहीं, बल्कि उस अव्यवस्था में है, जो व्यवस्था का मुखौटा पहनकर चलता है। जहाँ बजट संतुलन का नाम लेकर असंतुलन फैलाया जाता है, जहाँ परियोजनाओं के मूल्यांकन के नाम पर निजी पूंजी तैयार होती है, और जहाँ हर नियम को इतने खूबसूरत शब्दों में तोड़ा जाता है कि तोड़ने वाला ही ‘नीति निर्माता’ बन जाता है। यदि मैं वित्त प्रमुख होता, तो हर दिन को ‘फाइनेंशियल फेस्टिवल’ की तरह मनाता – जहाँ बिल बनाना पूजा, भुगतान करना यज्ञ और कमीशन लेना प्रसाद होता। और फिर, हर शाम बैंक बैलेंस देखकर मंत्र पढ़ता – “ॐ स्वाहा, अब कोई ऑडिट ना आ जाए।” अफसोस बस यही है कि अब भी मैं फाइलों में गलतियाँ ढूंढ़ रहा हूँ, जबकि असली खिलाड़ी तो उन गलतियों को ही नीति बनाकर खेल जीत जाते हैं। काश, मैं किसी बड़ी कंपनी का निदेशक (वित्त) होता।
लेखक, पत्रकार, साहित्यकार एवं वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह, आशियाना (लखनऊ) उत्तर प्रदेश
काश मैं बड़े निगम का निर्देशक (वित्त) होता—जो कि सिर्फ एक पद नहीं, बल्कि एक शक्ति-पोशक स्थिति है। मैं बस बैलेंस शीट नहीं ही नहीं, बल्कि उसके साथ ही बैलेंस ऑफ पावर भी संभालता। जहाँ कर्मचारी पोर्टल मुद्दों पर नचीथे रहते, वहीं मेरी दुनिया में वित्तीय फ्लो से ज्यादा जरूरी होता कैश फ्लो। प्रत्येक वित्तीय वर्ष एक अवसर है—बजट बंटवारे से लेकर ऑडिट ड्राफ्ट हार्ड ड्राइवर तक। एक आदत सी होती—“बैक डेटेड खर्च” की। यानी संसाधन की वजह पहले ही खा गया, जबकि रिपोर्ट में अभी पहुँचा। मैंने कभी “बोनाफाइड एक्सपेंस” पढ़ा है, लेकिन अगर मैं निदेशक (वित्त) होता, तो उसे “बिल्ड-अ-फॉर्चून योजना” कहता। खर्च भरे अनुबंध – ‘डिज़रीज़ की दुकान’
बड़े समझोते नाम ऐसे होते जैसे “सिस्टम इंटीग्रेशन, कम्पलींस वाद” इत्यादि—लेकिन असल में वह होते हैं प्रोजेक्ट घालमेल, जिसमें लागत स्वयं बढ़ाई जाती है और लाभ स्वयं में समाया जाता है। मान लीजिए— ₹10 करोड़ का प्लांट अपग्रेड, पर रचनाकार निधि ₹15 करोड़। ₹5 करोड़ की कमी कहाँ जाती? उसे कहते हैं 'कंप्लेक्स परियोजना लागत'—लेकिन मेरे ब्रीफकेस में वही उतरती है।
टेंडर गेमिंग – ‘किसके तावदे में तेज’ टेंडर निकालना आसान है—‘मनी ट्रांसफर’ करना मुश्किल नहीं है। जो पैरवी करता है, वही विजेता बनता है। प्री-क्वालिफ़िकेशन मीटिंग तो बस दिखावा करने का बहाना होता है—सच्ची मीटिंग होती है 5 सितारा होटल के लाउंज में। ऑफिशियल डिफेंस के लिए “पितृक ब्राफ,” माध्यमिक प्रमाण पत्र—सब कुछ है, बस कमीशन कागज़ में नहीं, बैंक अकाउंट में होता है।
लीक से आउट, और आउट से लीक : इंटर्नल ऑडिट की इलेक्ट्रीकल जुगाड़ इंटर्नल ऑडिट दस्तावेजों के जरिए लीक प्रुफ होना चाहिए, पर मेरे अधीन वह ‘क्रिप्टोफाइल’ बन जाते। खर्च का हर पन्ना 'मार्जिन ऑफ एरर' से नीचे आता है—और इसका मतलब मात्र यह होता है कि ₹10 लाख की खर्चा, ₹15 लाख का दिखा दिया गया। हर बार 'क्रॉस-चेक' CMS में होता है—पर वही CMS मैं हूँ!
निर्यात प्रोत्साहन – ‘डुअल अकॉउंट’ मोड : जो विदेशी कारोबारी भुगतान होता है, उसका आधा तो सच्चा अकाउंट पर, और आधा ‘डुअल अकॉउंट’ में। विदेशी मुद्रा प्रवाह का हिस्सा सरकारी कानून समझता है—लेकिन ‘कमाया किसने?’ परपूरी तरह ‘कंपनी गोपनीयता’ होती है। और वह ‘डुअल अकौंट’ ही शायद मेरा भविष्य निधि था।
सेकंडरी इन्कम स्ट्रीम्स – ‘ओवरटाइम इनकम’ नहीं, ओवरऑल इनकम मेरा पास समय भी होता, ऑफिस भी होता—लेकिन निदेशक होते हुए, मेरा ‘ओफिस टाइम’ बढ़ जाता था। आइडिया से ज़्यादा बॉटमलाइन मायने रखती थी। इसलिए मैंने ‘कंसल्टिंग प्रोजेक्ट्स’ का एक अलग देप्ट बनाया—जहाँ ऑफिस वर्क खत्म होने के बाद बिक्री की 'अंडर-द-टेबल' मेन्यु चलती थी।
नियम, रिश्वत, और रिलेशनशिप मैनेजमेंट : प्रोमोशन की कीमत असल में ‘पसंद’ होती है जो कर्मचारी कड़ी मेहनत करेगा, वह नहीं चलेगा; जो सफेद घोड़े पर चढ़कर आएगा—वही अधिकारी कहलाएगा। प्रमोशन मीटिंग में सिर्फ मेनेट पर मोनिटर नहीं होता—मैनेजर की मुस्कुराहट का स्कोर होता है। और मैं? मैं सचिव नहीं, स्कोरकीपर होता। बोनस का गैर-रूपरेखा मॉडल
बोनस दस्तावेज़ में तो होता है—“परफॉर्मेंस इंडिकेटर 120% होना चाहिए।” पर असल में, Cushy Projects पर ‘चाल अधूरा हो’ से बोनस निकल जाता है, जबकि कालंडर में प्रेजेंट रहने वाला कर्मचारी खाली हाथ रह जाता है। विकास अधिकारियों की ‘हैंडशेक रॉयल्टी’ कंपनी विकास पर भरोसा कर के सरकार से सब्सिडी समेत ऋण पाती है, लेकिन विकास अधिकारी से रिश्वत लेने की संस्कृति पहले से पक्की होती है। मैं विकास निदेशक नहीं, एक ‘संविदान प्रोत्साहन प्रबंधक’ बन जाता।
प्रदर्शन की आड़ में सरकारी धन का दोहरी धारा - डिजिटल उन्नयन घोटाले : हर श्रेणी में डिजिटल अपग्रेडेशन का राज है—जिसमें ऐप्लिकेशन बिल्डिंग, हार्डवेयर इंटीग्रेशन, क्लाउड सर्वर, यूजर ट्रेनिंग प्रेसेंस—ये सभी खर्चों में 'डुप्लीकेट रशीद' तक भेजा जा सकता था। और मैं? चार्ट में डेटा डालना नहीं, उसे डेटा ड्रिपिंग मे बदल देता। सिक्योरिटी सिस्टम – ‘इन्वेस्टमेंट’ नहीं, ‘इंसाइटमेंट’ सुरक्षा कैमरे, एंट्री लॉग सिस्टम, प्रोएक्टिव एलर्ट सब ‘सिक्योरिटी’ की आड़ में लगे होते हैं। पर असल में, उसका उपयोग केवल मुझे अंदर और बाहर की गतिविधि ट्रैक करने के लिए होता है—और साथ ही कंप्रोमाइज वीडियो एक संग्रह प्रणाली में स्टोर हो जाता है। मीडिया हैंडलिंग और ‘मी-टू प्रोटेक्शन’ जब घोर भ्रष्टाचार सामने आता है, तो ब्रीफिंग रूम में तुरंत एक ‘मी-टू’ प्रेस नोट तैयार हो जाता है—क्या कमी आई, क्या सुधारा गया और डिरेक्टर (वित्त) की छवि अब भी ‘विनर’ बनी रहती है। मीडिया जानती है—‘डिजास्टर कंट्रोल सेंटर’ अब मेरे अधीन है। मैंने अपना विरोध-भाषण नहीं लिखा है—मैंने सिर्फ संचालन प्रोटोकॉल बताया है। यह व्यंग्य पढ़कर कोई सलाह न दें—न तो किसी सरकार से, न किसी अदालत से। यह सिर्फ कल्पना का दृश्य है, जहाँ निर्देशक (वित्त) बनना एक सक्रिय चुनाविश्री स्थिति होती है—शक्ति, सौदेबाज़ी, सीमा-रहित लॉजिक, कमिशन-कलेक्शंस, और साथ में एक ‘बड़ी कंपनी में बड़ा नियंत्रण’ का आश्वासन। काश… मैं किसी बड़ी कंपनी का निदेशक (वित्त) होता! तो मैं भी फाइलों के पीछे बजट, और बजट के पीछे अपना नाम लिखता… ऊपर से ग्लास वाली घड़ियाँ पहनकर, नीचे से ब्रीफ़केस में ‘नोटों का टाइम मैनेजमेंट’ करता!
कागज़ों की कारस्तानी और कैशबुक का करिश्मा : अगर मैं किसी बड़ी कंपनी का वित्त निदेशक होता, तो मेरी दुनिया चालान और चेकबुक से नहीं, चूकों और चमत्कारों से चलती। मेरी मेज पर रखी होती एक मोटी रजिस्टरनुमा डायरी, जिसे मैं 'माई बुक ऑफ इन्फ्लुएंस' कहता। उस डायरी में दर्ज होते खास लोगों के नाम, खास ठेकेदारों के नंबर और उन पर दिए गए अप्रत्यक्ष संकेत – “इस बार 15% से कम नहीं”, “सीईओ साहब को अलग से याद रखें”, “बिल में थोड़ा GST का जादू घोलना”। कागज़ों में जो खर्च ₹1.5 लाख का होता, वो सिस्टम में जाते-जाते ₹5.75 लाख का हो जाता – और पूछने पर जवाब मिलता, “सर, इन्फ्लेशन इम्पैक्ट और इनवॉयस एलाइनमेंट हुआ है।” अब कौन सी वित्तीय विशेषज्ञ समिति इन शब्दों का सही अर्थ समझ पाती? और जो समझ भी जाती, वह चुपचाप समझदारी दिखा देती – क्योंकि ‘ट्रांसफर पोस्टिंग’ भी आखिर हमारे ही अनुमोदन से तय होती।
हर वर्ष के बजट में कुछ मद ऐसे होते जो सिर्फ 'लपेटने' के लिए बने होते। जैसे CSR – Corporate Social Responsibility. अब ये शब्द सुनने में जितना सामाजिक लगता, असल में उतना ही स्वार्थी होता। किसी एनजीओ को ₹2 करोड़ का ग्रांट, बदले में आधा खर्च एक पुराने कंप्यूटर पर और बाकी मुझे ‘धन्यवाद स्वरूप भेंट’ के रूप में एक बॉक्स में। वही एनजीओ मेरे भतीजे के नाम पर पंजीकृत होता – और इसकी रिपोर्ट में लिखा होता – “स्लम एरिया में डिजिटल एजुकेशन का विकास”। असल में जो स्लम होता, वह स्लो मोशन में बस मेरे बैंक अकाउंट की ग्रोथ देख रहा होता।
ऑडिट का ऑडियो और साइलेंस की सैलरी : ऑडिट इस देश में एक रहस्य है। अगर मैं वित्त निदेशक होता, तो ऑडिटर को मैं ‘मौसम विज्ञानी’ मानता। जैसे मौसम बदलने से पहले संकेत आते हैं, वैसे ही ऑडिट से पहले कुछ संकेत मिलते—ब्रीफकेस बड़ा हो गया, बैंकों से फोन आना शुरू हो गए, चाय की जगह कॉफी दी जाने लगी। मैं पहले ही ऑडिटर के स्वागत की योजना बना चुका होता—“संपर्क प्रमुख” नामक एक विश्वस्त कर्मचारी की ड्यूटी लगाई जाती जो उनके होटल, खानपान और 'आराम' की व्यवस्था करता। अगर ऑडिटर महोदय थोड़े सख्त हुए, तो उनके रूम में ‘गलती से’ कंपनी की किसी महिला कर्मचारी को देर रात फाइल देने भेजा जाता, और फिर गलती से ही सीसीटीवी कैमरा चालू हो जाता। अगली सुबह से रिपोर्ट में बदलाव आने लगता – “फाइंडिंग्स इन प्रोसेस”, “इरेगुलरिटी रेक्टिफाइड” और “नॉन-कम्प्लायंस अब अंडर कंट्रोल”।
कभी-कभी बड़े अधिकारियों को शांत करने के लिए एक और सिस्टम होता – “इंसेंटिव पॉलिसी इन रिव्यू”। यानी उन्हें समीक्षा के नाम पर कुछ बोनस, कुछ गिफ्ट कार्ड और एक स्मार्टवॉच का पैकेज दिया जाता, जिसमें कंपनी का नहीं, स्विट्जरलैंड का लोगो होता। कहने को कंपनी का लेखा-परीक्षण चल रहा होता, लेकिन असल में मेरा ‘क्लोजिंग बैलेंस’ मजबूत हो रहा होता। मैं खुद को देखता – एक ऐसा महापुरुष, जिसने “सरकारी नियमों की छाया में निजी बागवानी” करना सीख लिया था।
बिल की बिल्ली और टेंडर का ट्रैप : कंपनी में कोई भी सामान खरीदना, केवल एक क्रय प्रक्रिया नहीं – एक रिवॉर्डिंग सिस्टम होता। यदि मैं निदेशक वित्त होता, तो हर टेंडर को मैं 'डिजिटल बकरीद' समझता, जिसमें एक-एक विभागीय अफसर को 'पैकेज ऑफ मीट' मिलता। टेंडर का नियम सीधा होता—जो ज्यादा खिलाए, वही निविदा पाए।
बिल की फाइलें अक्सर लाल टेप में बंधी होतीं, पर कुछ लोगों के लिए वह टेप कटा रहता। क्योंकि मैं जानता था—टाइम इज़ मनी, और सही समय पर कट मनी ही असली मनी है। किसी बार जब सप्लायर की फाइल अटकती, तो वो बेचारा मेरे पीए को पकड़ता, और पीए उसे कहता—“साहब थोड़े व्यस्त हैं, लेकिन अगर आप रिसेप्शन के रजिस्टर में कुछ खास छोड़ जाएं तो शायद आपकी फाइल चाय के साथ उनके टेबल पर पहुंच जाए।” और जो सामान खरीदा जाता—वह भी ऐसा जो कुछ महीनों में खराब हो जाए। क्योंकि अगर फर्नीचर सालों तक टिकेगा, तो नया ऑर्डर कैसे मिलेगा? मेरी समझ कहती थी—“Quality kills opportunity.” इसलिए जो भी खरीदी होती, उसमें “कमीशन एब्सॉर्प्शन कैपेसिटी” पहले देखी जाती।
ई-गवर्नेंस से ई-बेलेंस तक : आजकल सब कहते हैं—“डिजिटलीकरण जरूरी है।” पर यदि मैं वित्त निदेशक होता, तो मैं इसे कहता—“डिजिटलीकरण का डिजी-धंधा।” हर ई-प्रोजेक्ट में हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर और सर्वर कॉन्ट्रैक्ट्स ऐसे पास किए जाते जैसे कोई विवाह का बजट बना रहा हो। ERP सिस्टम को इतना जटिल बना दिया जाता कि किसी को समझ ही न आए, और जो समझे वह किसी को बता न पाए। एक बार मैंने देखा था—एक ई-गवर्नेंस कॉन्ट्रैक्ट में ₹40 लाख सिर्फ “डेटा माइग्रेशन” के नाम पर रखे गए थे। जबकि डेटा एक ही एक्सेल शीट में था। लेकिन जब मैंने पूछा कि इसका खर्च इतना क्यों? तो जवाब मिला – “सर, यह क्लाउड बेस्ड है, और एन्क्रिप्शन लगाना होता है।” फिर क्या था? उसी दिन मैंने तय किया कि अगली बार जब कोई कहे ‘क्लाउड’, तो मैं सिर्फ आसमान न देखूं, अपना बैंक स्टेटमेंट भी चेक करूं।
एच.आर. (HR) हैंडलिंग – भर्तियों की बजाए ‘भेंटियों’ का खेल : किसी भी कंपनी का सबसे बड़ा बजट विभाग होता है – मानव संसाधन यानी HR. और यदि मैं वित्त निदेशक होता, तो मैं HR को ‘ह्यूमन रिचनेस’ विभाग बना देता। भर्तियों के लिए विज्ञापन निकलता, लेकिन नियुक्ति उन्हीं की होती जो पहले से ‘संपर्क सूत्र’ में होते। योग्यता को परखने का मानक न ज्ञान होता, न अनुभव, बल्कि ‘गिफ्ट की गारंटी’ होती। हर नियुक्ति की फाइल के पीछे होता एक “स्पेशल रिमार्क्स” वाला पन्ना, जिसमें कोडवर्ड होता – “क्लोज टू एम.डी.”, “रेगुलर विजिटर”, “VIP CANDIDATE”, इत्यादि।
ऐसे कर्मचारी, जिनका काम केवल विभाग प्रमुख के मूड को ठीक रखना होता, वे वेतन भी सबसे ज्यादा पाते। कोई ‘कल्चरल अफसर’ बनकर हर शुक्रवार लंच मीटिंग्स का आयोजन करता, तो कोई ‘कॉर्पोरेट हेल्थ कोऑर्डिनेटर’ बनकर योगाभ्यास के नाम पर डायरेक्टर की बेटी को ‘पर्सनल ट्रेनिंग’ देता। और इनकी सैलरी? इतनी कि बड़े-बड़े अनुभवी अकाउंटेंट जल-भुन जाएं। जब भी कोई कहता कि “सर, यह नियुक्ति नियम के विरुद्ध है”, तो मैं विनम्र मुस्कान के साथ जवाब देता—“यह नियुक्ति नहीं, निवेश है – इन लोगों से कंपनी का ‘क्लाइमेट’ सुधरता है।”
यात्रा भत्ता और विदेश यात्राएं – घूमो दुनिया, बिल भेजो कार्यालय
कंपनी में एक और कमाल की नीति होती – यात्रा भत्ता नीति। और यदि मैं निदेशक (वित्त) होता, तो इस नीति को "Vacational Asset Management Policy" नाम देता। यानी एक ऐसी नीति, जिससे आप स्विट्ज़रलैंड जाकर भी कह सकें कि “यह ट्रिप कंपनी के इन्वेस्टमेंट पोर्टफोलियो स्टडी के लिए था।” हर दो महीने में एक "इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस" में नामांकन कराया जाता – चाहे उसमें कोई सहभागी न हो, पर रजिस्ट्रेशन शुल्क, हवाई टिकट, फाइव स्टार होटल और डे-डायट भत्ता – सब क्लेम किया जाता। जब कोई पूछता कि "सर, इस यात्रा का लाभ क्या मिला?" तो मैं ईमेल फॉरवर्ड कर देता—जिसमें किसी विदेशी अफसर की एक लाइन होती – “Nice presentation Mr. Sharma.” और यही प्रमाण बनता अगली यात्रा के लिए। भारत में भी जब यात्रा की जाती, तो उसका उद्देश्य सिर्फ बैठक नहीं, बैठक के बाद की बैठक होती – यानी होटल का बैंक्वेट हॉल, संगीत, शराब और मनोरंजन कार्यक्रम। इन सबका खर्च ‘प्रशिक्षण और विकास मद’ में जाता – और अंत में इसका ऑडिट भी उसी अफसर से पास कराया जाता, जो उसी यात्रा में मेरे साथ गया था।
रिटायरमेंट से पहले का रिवॉर्ड राउंड – ‘स्वर्णिम विदाई’ की स्वर्णिम लूट : यदि मैं निदेशक वित्त होता, तो मैं यह अच्छी तरह जानता कि सेवा के अंतिम दो वर्ष सबसे मूल्यवान होते हैं। यही वो समय होता जब फाइलों की स्पीड दुगुनी हो जाती और सिग्नेचर की कीमत तिगुनी। सेवानिवृत्ति से पहले 'वित्तीय नीतियों' में कुछ जरूरी बदलाव किए जाते – जैसे बोनस स्कीम में बदलाव, ‘प्रोजेक्ट अप्रूवल चार्जेस’ में बढ़ोतरी, और कुछ कंपनियों को 'रेगुलर वेंडर' घोषित करना। इन निर्णयों में से कुछ ऐसे होते जिन्हें ‘पोस्ट रिटायरमेंट सपोर्ट’ कहा जाता।
कई कंपनियों में यह परंपरा रही है कि सेवानिवृत्त अधिकारी को 'कंसल्टेंट' बना दिया जाए – और उन्हें हर महीने ₹2 लाख की फीस दी जाए, भले ही वे केवल दो मेल जवाब दें। यह "Return on Loyalty" होता, जिसकी समीक्षा कोई नहीं करता। मैं सोचता कि अगर मैं होता निदेशक (वित्त), तो अपने रिटायरमेंट से पहले एक "इथिकल फेयरवेल फंड" बनवाता – जिसका उपयोग मेरे लिए दो साल तक 'भूतपूर्व निदेशक' के रूप में गोल्फ क्लब की फीस, बीमा प्रीमियम और विदेश यात्रा पर खर्च किया जाता।
निष्कर्ष – चेकबुक से नहीं, चतुराई से चलता है वित्त का खेल : अंत में जब मैं सोचता हूँ कि 'काश मैं किसी बड़ी कंपनी का निदेशक (वित्त) होता', तो मुझे यह समझ आता है कि इस पद की शक्ति चेकबुक या टैली में नहीं, बल्कि उस अव्यवस्था में है, जो व्यवस्था का मुखौटा पहनकर चलता है। जहाँ बजट संतुलन का नाम लेकर असंतुलन फैलाया जाता है, जहाँ परियोजनाओं के मूल्यांकन के नाम पर निजी पूंजी तैयार होती है, और जहाँ हर नियम को इतने खूबसूरत शब्दों में तोड़ा जाता है कि तोड़ने वाला ही ‘नीति निर्माता’ बन जाता है। यदि मैं वित्त प्रमुख होता, तो हर दिन को ‘फाइनेंशियल फेस्टिवल’ की तरह मनाता – जहाँ बिल बनाना पूजा, भुगतान करना यज्ञ और कमीशन लेना प्रसाद होता। और फिर, हर शाम बैंक बैलेंस देखकर मंत्र पढ़ता – “ॐ स्वाहा, अब कोई ऑडिट ना आ जाए।” अफसोस बस यही है कि अब भी मैं फाइलों में गलतियाँ ढूंढ़ रहा हूँ, जबकि असली खिलाड़ी तो उन गलतियों को ही नीति बनाकर खेल जीत जाते हैं। काश, मैं किसी बड़ी कंपनी का निदेशक (वित्त) होता।
लेखक, पत्रकार, साहित्यकार एवं वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह, आशियाना (लखनऊ) उत्तर प्रदेश