प्राकृतिक खेती की ओर बढ़ रहा रूझान, गुणवत्तापूर्ण उपज के साथ आय में भी हो रही वृद्धि

शि.वा.ब्यूरो, सहारनपुर। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ और सहारनपुर मंडल गन्ना, गेहूं, धान, सरसो आदि की खेती के लिए बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान रासायनिक खेती के जो दुष्परिणाम सामने आए हैं उससे संबंधित लोग सबक ले रहे हैं। हमारे किसान फिर से अपनी प्राकृत एवं परंपरागत खेती की ओर लौट रहे हैं जो समाज और देश के लिए बहुत ही शुभ संकेत है। सहारनपुर मंडल में अनेक किसान गन्ने की प्राकृतिक खेती कर रहे हैं। गन्ने का गोला जो पशुओं के चारे के रूप में इस्तेमाल होता है। वह पशुओं को पूरी तरह से रोगमुक्त रखता है और खास बात यह है कि गायभैंस गुणवत्तापूर्ण और शुद्ध दूध देती हैं, जिसे पीना और इस्तेमाल करना स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभदायक है। इसी तरह गन्ने से बनने वाले गुड़ और शक्कर भी उच्च क्वालिटी के होते हैं और स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभदायक हैं। बाजार में इन उत्पादों की मांग बहुत ज्यादा है और किसान को बहुत लाभ होता है, साथ ही आज ऐसे किसानों को  सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।

उत्तर प्रदेश सरकार प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित कर रही है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ऐसे किसानों को अपने हाथों से पुरस्कार और सम्मान पत्र प्रदान कर उनकी हौसला आफजाई कर रहे हैं। गन्ना उपायुक्त ओमप्रकाश सिंह ने बताया कि मुजफ्फरनगर के गांव नूनीखेड़ा के प्रगतिशील किसान देवेश आर्य को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्राकृतिक रूप से गन्ने, गेहूं और सरसो की उत्तम खेती करने के लिए सम्मानित किया हैं। देवेश आर्य ने बताया कि उनका परिवार करीब 52 बीघा जमीन में वर्ष 2016 से गेहूं, सरसो और गन्ने की खेती कर रहा है। प्रति एक बीघा में वह 75 क्विंटल गन्ने की उपज ले रहे हैं और जो किसान रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं उनकी उपज ज्यादा से ज्यादा 80 क्विंटल प्रति बीघा है। 

ओमप्रकाश सिंह कहते हैं कि शुरू में पैदावार जरूर कुछ कम होती है, लेकिन तीन-चार वर्षों के बाद वही औसत आ जाता है। दिलचस्प यह है कि प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों की लागत सामान्य खेती से एक चौथाई कम आती हैं। उसमें पानी की भी कम खपत होती है। बीजो को एक बार नाली के रूप में बुआई के बाद गुड़ाई आदि भी नही करनी पड़ती है। खाद के रूप में गाय का गोबर, मूत्र, सड़ा-गला अनाज, बेसन एंव जीवामृत वेस्ट-डी कंपोजर और गोबर के घोल का इस्तेमाल होता है। उपज में कीड़े और रोग आदि भी नहीं लगते हैं। नाइट्रोजन का इस्तेमाल नहीं होने से बीमारियां नहीं होती हैं। ऐसे गन्ने से बने उत्पाद बेहद स्वादिष्ट और रूचिकर एवं स्वास्थ्यवर्धक होते हैं। गेहूं भी पोष्टिक और लाभदायक होता है। सरसो का तेल भी उत्तम श्रेणी का होता है। 

सहारनपुर के शाकम्बरी क्षेत्र के प्रगतिशील किसान दंपत्ति संजय चौहान और ममता चौहान सैकड़ो बीघा जमीन में प्राकृतिक खेती करते हैं। शिमला मिर्च, लौकी और धान की उच्च प्रजाति की पैदावार करने पर उन्हें कई बार सम्मानित किया जा चुका है। इसी साल उद्यान विभाग की प्रदर्शनी में स्वादिष्ट स्ट्राबेरी की पैदावार करने पर उन्हें प्रथम पुरस्कार दिया गया था। ये दंपत्ति पूरी तरह से शिक्षित है। संजय चौहान ने अपने पिता पृथ्वी सिंह की प्रेरणा से 2015 से प्राकृतिक खेती शुरू की थी। वह कई साल से गन्ने और गेहूं की खेती कर रहे हैं। शुरू में कुछ नुकसान उठाना पड़ा लेकिन अब लाभ की स्थिति में पहुंच गए हैं। वह खेतों में जीवामृत और गोबर को पानी में घोलकर खेतों में डालते हैं, जिससे फसल को पर्याप्त पोषक तत्वों की आपूर्ति होती है। रोग और कीटनाशक से बचाव के लिए घर में बने मट्ठे, तंबाकू, मिर्च और लहसुन का इस्तेमाल करते हैं। इस परिवार के पास 10 गायें हैं, जिनका गोबर और गौमूत्र खेती में इस्तेमाल होता है।

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