डाक्टर आशा रावत के गढवाली नाटक

डाक्टर आशा रावत, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

बचपन में सबसे पहले देखा जाने वाला नाटक रामलीला था। उस समय लखनऊ में गढ़वाल सभा के द्वारा रामलीला का आयोजन बहुत भव्य स्तर पर होता था और हम माता-पिता भाई-बहन सभी रोज रामलीला देखने अवश्य जाते थे, जो कि लगभग एक हफ्ते तक चलती थी। मेरे पिताजी रामलीला में अंगद का पात्र अदा करते थे। गढ़वाल सभा का अध्यक्ष एवं सक्रिय सदस्य होने के नाते वे स्वयं उस समय एक मोटे रजिस्टर में रामलीला के संवाद लिखा करते थे। हम अक्सर पिताजी की अनुपस्थिति में उनके रजिस्टर पढ़ा करते थे। उनका वह रजिस्टर आज भी मेरे पास एक यादगार धरोहर के रूप में रखा है ।

नहीं भीष्म जी! मैंने बादी- बदेण के लोक नाटक नहीं देखे हैं।

शिक्षा लेते समय देखे गये नाटक- रामलीला, कृष्णलीला, हरिश्चंद्र, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, रानी लक्ष्मीबाई आदि रहे हैं। इनके अतिरिक्त लखनऊ के रवींद्रालय में रामी बौराणी, माधो सिंह भंडारी नाटक भी देखे हैं। 

भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, मोहन राकेश, मंटो, भीष्म साहनी, हबीब तनवीर, कृष्णा सोबती आदि ने बहुत प्रेरित किया है।

अब तक मेरा एकमात्र गढ़वाली नाटक संग्रह हमऽरु गौं होश्यारखाल प्रकाशित है। विभीषण की लंका, सरकार बदल गई है, नेता बनाने का कारखाना, लड़ना एक चुनाव और कर्फ्यू में सरकारी शादी आदि कुछ हिंदी नाटक विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। इन दिनों गढ़वाली अखबार रंत रैबार में घुगती को रैबार का प्रकाशन हो रहा है।

पहला नाटक तो स्मरण नहीं है।

मंचन- एक शैक्षणिक संस्थान में अकल बड़ि कि भैंस। अध्यापन के दौरान नेता बनाने का कारखाना और सरकार बदल गई है का मंचन किया है।

यू.ट्यूब में कोई नहीं।

मूलतः व्यंग्यकार होने के कारण मेरे नाटक सामाजिक, राजनीतिक बुराई के वर्ग में आते हैं।

नाटक लिखने से पहले विषय अपने आसपास फैली सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक विसंगतियों को देखकर स्वतः चले आते हैं।कुछ विषय व्यंग्य लेख की मांग करते हैं तो कुछ नाटक की।

मन में बुना जाने वाला नाटक कागज पर उतर तो जाता है, किन्तु उसे पूर्ण होने में बहुत समय लगता है। लगभग दो तीन माह या अधिक भी।

नाटक में चरित्र चित्रण के लिए संवादों का ही सहारा लेना पड़ता है।सीधे सीधे वर्णन तो कर नहीं सकते।

संवाद लिखते समय भाषा व शैली दोनों का ध्यान रखना पड़ता है ताकि पात्रों का परिवेश चित्रित हो सके।

नाटकों का उद्देश्य अंत में किसी पात्र के माध्यम से ही प्रकट होता है। कभी कभी नेपथ्य से भी कुछ कहा जा सकता है और कभी अंत में लेखक स्वयं भी आगे आ सकता है।

   वार्तालाप के कुछ उदाहरण-

गपोड़ी -अपणि लठी जोर से पकड़िक ए ब्वे...दूर कखि बाघ घुरणू छ।

नढ्वा- बेफिकर ह्वेकी घुरण दे। डरणै क्या बात छ?

गपोड़ी- हैं...? डरणै बात नी छ? अगर वो नजीक ऐ जाव, त...?

नढ्वा- मी दगड़ तु छै सितगु बादुर आदिम। जन एक दा तिन द्वी बाघों तैं एकी चोट मा फुंडु धकेल्याल छै, उनि अजि बि कैर देलो। 

गपोड़ी- दांत दिखैक व बात त ठिक च,पर...

नढ्वा- पर क्या?

गपोड़ी- वो दुया बाघ माड़ा छया।अगर यो तगड़ु होलु, त...!

पछतौ कि रात नाटक बिटि

नौना कु बाबा - य बेटी क्या क्या काम जणद?

जी, सबि धणि। कुटण, पिसण, खेती बाड़ी अर रसोई का दगड़ सब काम धंधा करद।

चंदू - ब्वे...! ईं बीना दीदी तै रसोई बणाण कख आंद? नौना कु बाबा मुस्करांद च। चंदू तै वेकी ब्वे आंखा दिखैक भैर जाणू तै सानी करद, पर वो नि जांद। अपड़ि जगा मा बैठ्यूं रंद।

चंदू- बीना दीदी तै कतगी ब्वाला पर वा खाणा बणाणू तै फगत ना बोलद। 

ब्वे- सुरुक कै वो त कबि कबि वींकी गौं नि हूंदी।

चंदू- ब्वे! तु त बोलद कि वींकी काम कना की गौं कबि नि हूंदी।

छामा- पुलेकि चंदू...! जा बाबा तु भैर खेल।यख बड़ों का बीच मा क्या कनू छै।

चंदू- पिता जी, अबि जांदू , पर ब्वे त बीना दीदी तै फगत ई बोलद कि यींन अपड़ा सौरास मा मेरी नाक कटाण। हैंकी तरफ इन बि बोलदी कि जो य अपणा सौरास मा काम कैरिक खप जाली त मेरी नाक काटिक प्वारम धैर दियां। जणि सच क्या च?

चुप चुप बल चुफ्फा नाटक बिटि

गुठ्यार मा बैठक जमीं च

छामा- हमारा नौना कन हर्चि गैं ! 

मस्तु - द्यखदा द्यखदा सब गौं छोड़िक बूण बस गिन। जो रयां बि छन ,वो कब तक रला...!

गपोड़ी- ई हाल राला त जल्दी ही वो टैम आलो, जब यख चिलघट बोलला। 

छामा- गपोड़ी! तेरी गप्पियों मा मजा नि रैग्ये।अब वो बि कम ह्वेगिन। 

माड़ु- हमारा सि चार ।जन हमारि चैकड़ी की संख्या कम हूंदा जाणी।कुछ बरसों की बात च।फिर त खतम ह्वे जाली।

मस्तु- समय की रफ्तार का समणि हमारि चैकड़ी की जर्वत बि क्या च? वास्तौमा अब हम गर्व से बोलि सकदौ कि हम होश्यारखाल का निवासी छौं।

गढ़वाली नाटक संग्रह में गढ़वाली भाषा का प्रयोग किया है, किंतु मैं यह अवश्य कहूंगी कि गढ़वाली भाषा में मेरा अधिकार बहुत कम है। शुद्ध व स्तरीय गढ़वाली मैं नहीं लिख पाती।यह मेरी सीमा है।

कुछ नाटक हिंदी में भी लिखे हैं और उनकी भाषा हिंदी ही है।आरंभ से हिंदी में ही लिखती आ रही हूं। गढ़वाली में लिखना तो सन् 2010 में आरंभ किया, जब स्थाई रूप से यहां देहरादून आ गई। 

भाषाई कठिनाई को सुलझाने के लिए क्लिष्ट शब्दों के सरल अर्थ कोष्ठक या फिर अंत में स्टार लगा कर स्पष्ट करती हूं।

भीष्म जी! मेरे गढ़वाली नाटकों का मंचन मेरी जानकारी में तो हुआ नहीं । हां, जो हिंदी में लिखे नाटक हैं वे अवश्य मैंने विद्यालयों में तैयार करवाये और मेरे विद्यार्थियों ने बहुत अच्छे ढंग से उन्हें प्रस्तुत भी किया, जिसके लिए मुझे उन पर बहुत गर्व है।

नाटकों के मंचन के लिए तो मैंने कुछ भी नहीं किया है।

गढ़वाली नाटक प्रकाशन के लिए वास्तव में बहुत समस्याएं हैं। ऐसे प्रकाशकों को ढूंढना जोकि स्वयं भी गढ़वाली भाषा से परिचित हों और जो अच्छी गढ़वाली में लिख सकते हैं, बहुत मुश्किल है। मेरे विचार से राज्य सरकार को मातृभाषा के प्रचार प्रसार हेतु पुस्तक प्रकाशन की व्यवस्था करनी चाहिए, ताकि लेखक पर आर्थिक बोझ न पड़े और उसे प्रकाशक भी खोजना न पड़े।

प्रकाशन के साथ ही मंचन के क्षेत्र में भी बहुत समस्याएं हैं। जिस तरह हिंदी नाटकों को आसानी से मंच मिल जाता है, उस तरह गढ़वाली नाटकों को नहीं मिल पाता। यदि गढ़वाली नाटक अनवरत प्रकाशित और मंचित होते रहेंगे तो भावी पीढ़ी को गढ़वाली भाषा समझने व आत्मसात करने में कोई भी परेशानी नहीं होगी।  उन्हें इसे सीखने, समझने और इसमें लिखने की भी प्रेरणा मिलेगी। 

भीष्म जी! आप स्वयं इतने विद्वान एवं नामचीन साहित्यकार हैं। आप जैसे साहित्यकारों से ही अपेक्षा की जा सकती है कि वे गढ़वाली नाटकों के प्रकाशन तथा मंचन की गंभीर स्थिति पर ध्यान दें तथा उनकी समस्याओं का समाधान सुझायें। आपने स्वयं इतना काम किया है। न सिर्फ रचनात्मक लेखन बल्कि समीक्षात्मक एवं शोधपरक आलेखों पर भी इतना काम किया है कि आप और आप जैसे विद्वान साहित्यकार ही इस दिशा में कोई मार्ग दिखा सकते हैं और दूसरों को भी प्रेरित कर सकते हैं। 

 जब मैंने इतने नाटक लिखे ही नहीं तो अपने विषय में क्या कहूं! कुछ कहने के लिए होना भी तो चाहिए। ( हंसी)

मैं अपने को गढ़वाली नाट्य संसार में कहीं भी नहीं रख सकती। एक ही तो नाटक संग्रह लिखा है।

मैं नहीं जानती भीष्म जी!  कि मुझे गढ़वाली नाटक संसार में कैसे याद किया जायेगा !एक से बढ़कर एक नाटककार हुए हैं, जिन्होंने गढ़वाली नाटक की विकासधारा को आगे बढ़ाया है। मैं वहां पर नहीं आती।यह मेरा सौभाग्य है कि आपने मुझे गढ़वाली नाटककार के रूप में याद करने योग्य समझा। धन्यवाद।  

देहरादून, उत्तराखंड

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