मेना और हिमालय की बातचीत, पार्वती तथा हिमवान् के स्वप्न तथा भगवान् शिव से मंगल ग्रह की उत्पत्ति का प्रसंग
उनके हृदय से विरह का प्रभाव कुछ कम हो गया। उनमें विरह क्या था, वे लोकाचार का पालन कर रहे थे। वास्तव में सत्पुरूषों के प्रिय श्रीरूद्रदेव निर्विकार परमात्मा ही हैं। शिव की उपर्युक्त आज्ञा को शिरोधार्य करके पुत्र सहित पृथ्वी देवी शीघ्र ही अपने स्थान को चली गयीं। उन्हें आत्यन्तिक सुख मिला। वह बालक भौम नाम से प्रसिद्ध हो युवा होने पर तुरंत काशी चला गया और वहां उसने दीर्घकाल तक भगवान् शंकर की सेवा की। विश्वनाथ जी की कृपा से ग्रहकी पदवी पाकर वे भूमि कुमार शीघ्र ही श्रेष्ठ एवं दिव्यलोक में चले गये, जो शुक्रलोक से परे है। (अध्याय 9-10)
भगवान् शिव का गंगावतरण तीर्थ में तपस्या के लिए आना, हिमवान द्वारा उनका स्वागत, पूजन और स्तवन तथा भगवान् शिव की आज्ञा के अनुसार उनका उस स्थान पर दूसरों को न जाने देने की व्यवस्था करना
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! हिमवान् की पुत्री लोकपूजित शक्तिस्वरूपा पार्वती हिमालय के घर में रहकर बढ़ने लगीं। जब उनकी अवस्था आठ वर्ष की हो गयी, तब सती के विरह से कातर हुए शम्भु को उनके जन्म का समाचार मिला। नारद! उस अदभुत बालिका पार्वती को हृदय में रखकर वे मन-ही-मन बड़े आनन्द का अनुभव करने लगे। इसी बीच में लौकिक गति का आश्रय ले (शेष आगामी अंक में)
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