(सुनील वर्मा, वरिष्ठ पत्रकार), शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
अंग्रेज पिछले 60 वर्ष पहले जिन समस्याओं को छोड कर गये आज देश का किसान उनसे बराबर रूबरू हो रहा है। 60 साल तक सत्ता में रहने वाली काग्रेंस को तो कम से कम किसानों के नाम पर राजनीति करने का कोई अधिकार नहीं है, रही सही
कसर मैक इन इंडिया पूरी करने पर उतारू है। जमीन छोड दो, सब्सिडी छोड दो,15 लाख की उम्मीद छोड़ दो। आखिर जनता के नाम पर देश की जिम्मेदारी की पगड़ी बांध कर हम चाहते क्या हैं। मैंने कभी किसी फैक्ट्री या किसी शुगर मिल के मालिक
को घाटा होने पर आत्महत्या या सदमें से मरते नही सुना, लेकिन किसान क्यों मर जाता है? शायद इसलिए कि किसान को उसकी एक बीघा जमीन के बदले मे देश का बैंक 15000 हजार का क्रैडिट कार्ड 14 फीसदी ब्याज की दर से देता है और शुगर मिल को हजारों करोड़ रूपये बिना ब्याज और वसूली के। वसूली के नाम पर किसान की इज्जत और जमीन दोनो की
नीलामी वो अलग।
उत्तर प्रदेश में बीती खरीफ की फसल का 2265 करोड़ का बीमा कराया गया था, जिसमें किसानो के खून-पसीने की कमाई से प्रीमियम के रूप में 213.45 करोड़ का भुगतान बीमा कंपनी को किया गया, लेकिन किसानो के नाम पर मात्र लगभग 100 करोड़ ही नसीब हो पाये, जिनमें आधा तो किसानो की बदनसीबी के चलते पटवारी और अधिकारी रबड़ी समझकर चट कर गये बदनसीबी का सिलसिला यही पर नही रूकता हाल ही में मौसम की मार और हाकिमों की लताड़ तक बादस्तूर चल रहा है। जिस देश की राजधानी में 50 बंदरो को पकड़ने के लिये 200 करोड़ का भुगतान मिन्टो में किया जाता हो, उसी देश मे हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले किसान को उसकी बेबसी के 70 रूपये के लिये कितना गिड़गिड़ाना पडता है, इस पर थिसिस कोई विदेशी ही लिखकर किसी बीबीसी जैसे चैनल पर ही चलवा सकता है, देश के चैनलो की तो सभी लाईने केजरी, मोदी और सनी लियोनी के कारण व्यस्त है और सरकार के नाम पर काठ के उल्लूओं की सरपरस्ती में लुटेरो की मण्डली खूब अंधेर गर्दी मचाने में मस्त है।
शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र में वर्ष 11 के अंक 38, 19 अप्रैल 2015 के अंक में प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार सुनील वर्मा का लेख