(सुनील वर्मा, वरिष्ठ पत्रकार), शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र। ये सजोंग ही है कि विश्वगुरू जिसने गीता जैसा सन्देश पूरे विश्व के जनमानस को दिया उसके जन्म दिन के साथ-साथ शिक्षक दिवस भी था, दुनिया के सारे शिक्षको को इससे बडी सौगात और
क्या हो सकती है, कि भगवान कृष्ण ने सारे गुरूओं को अपने समकक्ष बना दिया। वैसे जन्माष्टमी भारतीय पुलिस के लिए प्रायश्चित के रूप में भी मनाई जाती है, क्योकि आज के ही दिन जेल के सारे सिपाही ऐन वक्त पर सो गये थे और वासुदेव कृष्ण को जेल से लेकर फरार हो गये थे, तब से लेकर आज तक पुलिस बेचारी शर्मसार है, लेकिन वक्त पर सोने का स्वभाव थोडा न छुटता है।
कृष्ण संदीपन गुरू के आश्रम मे पढ़ते थे, जो एक तरह से हाॅस्टल ही था। उनके साथ उनके प्रिय सखा सुदामा भी संदीपन गुरू के ही शिष्य थे। फर्क इतना था कि कृष्ण अपर क्लास वाले थे और सुदामा लोवर क्लास के। कृष्ण तो राजा बनकर द्वारका चले गये और सुदामा की परंम्परा बनी रही ठीक हिंदी के टीचर जैसी। कहते हैं कि एक बार सुदामा महाराज कृष्ण से मिलने आये। द्वारपाल ने कृष्ण जी से कहा कि महाराज एक व्यक्ति आपसे मिलने आया है। कृष्ण जी ने पूछा कि कौन है, देखने में कैसा लगता है? द्वारपाल ने सुदामा को जो परिचय दिया वो इस प्रकार है, कि भगवन फटे से कपडे़ है, छितरे हुऐ बाल हड्डियों पर चिपके हुए गाल, देखने में कोई कम्युनिस्ट सा लगता है प्रभु और अपना नाम सुदामा बताता है। प्रभु को पता चला कि उनके प्रिय सखा उनके द्वार पर आये है, तो वो सुदामा को लिवाने के लिए नगें पांव ही दौड़ पडे। कहते है कि सुदामा जब कुछ समय रूकने के बाद वहां से विदा हुए तो कृष्ण जी ने सुदामा को गोला नारियल, चादर तथा कुछ हीरे-जवाहरात भी दिए, परन्तु सुदामा ने गोला नारियल और चादर तो रख लिया, लेकिन सोना-चांदी हीरे जवाहरात वगैरा वापस कर दिए। ये उस समय की समय की बात थी। अब कृष्ण तो बदल गये, लेकिन सुदामा जस के तस, तब से लेकर आज तक शिक्षक बेचारा सुदामा बनकर ही रह गया। उनकी गति हिंदी दिवस पर देखते ही बनती है।
सरकारी कृष्ण उन्हे शाॅल नारियल, एक सस्ता सा गुलदस्ता और 51 रूपये देकर हर बार घर लौटायेंगे लेकिन द्वार तक न लेने आयेंगे न द्वार तक छोडने जायेंगे। खैर इस बार दिन में शिक्षक दिवस रात को जन्माष्टमी। ये संयोग बहुत दिनो तक याद रहेगा, पर अफसोस कि आज कृष्ण-सुदामा के गुरू संदीपन को कोई याद नही करता।
शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र में वर्ष 12 के अंक 07, 13 सितम्बर 2015 के अंक में प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार सुनील वर्मा का लेख